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आप्तवाणी-६
दादाश्री : परंतु उसके आधार पर हमें क्या बैठे रहना है? वे देकर जाएँ, उसके बजाय तो जब तक हम हैं तब तक काम निकाल लो न! बाद में तो वारिस 'इन्टेलिजेन्शिया' होते हैं। वे मूल बात को आगे-पीछे कर देते हैं! इसलिए जब मूल पुरुष हों तब उनसे काम निकाल लेना चाहिए और उसके लिए संसार को एक ओर रख देना चाहिए!
ऐसा 'रियल' कभी ही होता है, वहाँ पर संपूर्ण पद प्राप्त होता है। वहाँ पर सच्ची आज़ादी मिलती है। भगवान भी ऊपरी नहीं, वैसी आज़ादी प्राप्त होती है।
पुरुष होने के बाद का पुरुषार्थ अर्थात्, एक बार दहाड़े तो कितने ही शेर और शेरनियाँ भाग जाएँ। परंतु ये तो पिल्ले भी मुँह चाट जाते हैं!
हम ज्ञान देते हैं, फिर वास्तविकता ओपन होती हैं। फिर खुद पुरुष बन जाता है। फिर आपको 'मैं परमात्मा हूँ' ऐसा भान होता है। हम पाप भस्मीभूत करवा देते हैं, दिव्यचक्षु देते हैं, इसलिए फिर सभी में परमात्मा दिखते हैं! अर्थात् ऐसा पद देने के बाद, परमात्मयोग देने के बाद आपको पाँच आज्ञा देते हैं।
यानी आपने परमात्मपद, परमात्मसुख सब देखा हुआ है। वह आपके लक्ष्य में है, तब तक आप वापस फिर असल स्टेज पर आ जाओगे। अतः फिर से ऐसा योग जमा लो, संसार का जो होना हो, वह हो। 'व्यवस्थित' के ताबे में सबकुछ सौंप देना है, और वर्तमान योग में ही रहना। भविष्य तो 'व्यवस्थित' के ताबे में है।
स्थूल पार करो, सूक्ष्मतम में प्रवेश करो प्रश्नकर्ता : आपकी गैरहाज़िरी में एकाग्रता इधर-उधर हो जाती है, तब क्या करें?
दादाश्री : जब तक दादा खुद होते हैं, तब तक वे स्थूल हैं। स्थूल में से सूक्ष्म में जाना चाहिए। स्थूल तो मिला, परंतु अब सूक्ष्म में जाना चाहिए और दादा हाज़िर नहीं हों तब तो सूक्ष्म का ही प्रयोग शुरू कर देना चाहिए