________________
२३४
आप्तवाणी-६
प्रश्नकर्ता : परंतु उल्टे रास्ते पूरा जन्म बेकार जाएगा न?
दादाश्री : परंतु उसमें ऐसे झिकझिक करो तो क्या होगा? उसे 'देखते रहना' वही पुरुषार्थ है। पुरुषार्थ समझ में नहीं आने के कारण आप उलझ जाते हो। यह तो सिर्फ 'सफोकेशन' ही है।
प्रश्नकर्ता : अंत में फिर उकता जाते हैं कि यह सब क्या हो रहा है?
दादाश्री : उकताहट हो तो चंदूभाई को होगी। आपको' थोड़े ही होती है? और 'आपको' चंदूभाई को डाँटना चाहिए और उससे शाम को प्रतिक्रमण करवाना चाहिए।
आत्मा का स्वभाव ऐसा है कि इतना सा भी जाने बगैर रहेगा नहीं। क्या-क्या हुआ, वह सारा ही यह जानता है! ये बाहरवाले सभी कोई शिकायत करने क्यों नहीं आते कि मुझे आज ऐसा हो रहा है, वैसा हो रहा है?
प्रश्नकर्ता : उन्हें समाधि रहती होगी?
दादाश्री : आत्मा प्रकट है ही नहीं, वहाँ फिर समाधि किस तरह हो सकती है? अहंकार ही काम करता रहता हो, वहाँ पर आत्मा प्रकट ही नहीं है। आपको तो आत्मा प्रकट हो गया है! इसलिए यह सब पता चलता है। नहीं तो और कोई क्यों ऐसा नहीं बोलता?
प्रश्नकर्ता : फिर खुद का परमानंद, खुद का अनंत सुख, वह चला नहीं जाना चाहिए न?
दादाश्री : परंतु ये अंतराय आते हैं, इसलिए सुख चला जाता है। प्रश्नकर्ता : कौन से अंतराय, दादा?
दादाश्री : यह व्यापार के लिए तू जाता है, वहाँ चंदूभाई क्या-क्या करते हैं, उसे 'तू' अच्छी तरह ‘देखता' नहीं है, इसलिए सब टूट जाता है। सभी यदि पद्धतिपूर्वक हो रहा हो तो कुछ भी नहीं होगा।
प्रश्नकर्ता : ‘देखता' नहीं अर्थात् क्या?