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आप्तवाणी-६
देते हैं। और उन कर्मों की उद्दीरणा होती है । परंतु पुरुष होने के बाद ही यह पुरुषार्थ हो सकता है । पुरुषार्थ होने के बाद इतना अधिकार है उसे !
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उद्दीरणा से दो लाभ होते हैं । एक तो उद्दीरणा करने के लिए आपको आत्मस्वरूप होना पड़ता है । और दूसरा, कर्मों की उद्दीरणा होती है !
आत्मस्वरूप कब हो सकते हैं? जब सामायिक और कायोत्सर्ग दोनों हो जाएँ, तब आत्मस्वरूप हो सकते हैं। अपने यहाँ तो सिर्फ सामायिक से ही आत्मस्वरूप हो जाते हैं, उससे उद्दीरणा हो जाती है। यह 'अक्रमज्ञान' है, इसलिए आप आत्मस्वरूप हो सकते हैं और तभी पुरुषार्थ और पराक्रम हो पाता है
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वर्ना जगत् जिसे पुरुषार्थ मानता है, उसे ये दादा कहते हैं कि, ‘उसके बारे में तो ज़रा सोचो।' यह नीम पत्ते - पत्ते में कड़वा होता है, डाली-डाली में कड़वा होता है, उसमें नीम का क्या पुरुषार्थ ? वैसे ही यह तप, त्याग करते हैं, उसमें उसका क्या पुरुषार्थ ?
खुद है लट्टू, वह उद्दीरणा करने कैसे बैठ गया? पुरुष हुए नहीं हैं, इसलिए लट्टू कहा है। परंतु लट्टू का और उद्दीरणा का, दोनों का मेल किस तरह बैठेगा?
निकाचित कर्म तो हमेशा कड़वे लगते हैं । मीठा निकाचित कर्म हो परंतु जब वह आख़िर में उकताकर कड़वा लगे, तब भान होता है कि यह यहाँ से अब हटे तो अच्छा !
निकाचित कर्म दो प्रकार के होते हैं : एक कड़वा और दूसरा मीठा । मीठे कर्म भी यदि बहुत आएँ, तब फँस जाते हैं | अतिशय आइस्क्रीम दें तो आप कितनी खाओगे ? अंत में उससे भी उकता जाओगे न? और कड़वे में तो बहुत ही उकता जाते हैं । उसमें तो कुछ पूछने को रहा ही नहीं न! लेकिन भोगे बिना चारा ही नहीं ।
निकाचित कर्म अर्थात् जो भुगतने ही पड़ें। और बाकी सब कर्म ऐसे हैं जो खत्म हो सकें । जिसे उद्दीरणा कहते हैं, उसे तप कहें तो चल