________________
आप्तवाणी-६
क्या कहते हैं, ‘तू पुरुषार्थ कर, बेकार ही प्रारब्ध पर मत बैठा रहना ।' अर्थात् प्रारब्ध पंगु अवलंबनवाली चीज़ है और 'व्यवस्थित' तो 'एक्ज़ेक्ट' जैसा है वैसा ही है।
प्रश्नकर्ता: 'व्यवस्थित' अर्थात् पूर्वनिश्चित? वह पूर्वनिर्धारित है?
दादाश्री : हाँ, संपूर्ण पूर्वनिश्चित है ! परंतु जब तक आपको संपूर्ण ज्ञान नहीं है, तब तक आपको बोलना नहीं चाहिए कि 'व्यवस्थित' ही है । ये मन-वचन-काया ‘व्यवस्थित' के अधीन है । यह हाथ ऊँचा करते हैं, अंदर सोचते हैं, अंदर प्रेरणा होती है, वह सब 'व्यवस्थित' के अधीन ही है। आप ‘शुद्धात्मा' हो और बाकी सबकुछ उसके अधीन ! इसलिए उसमें हाथ मत डालना। ‘क्या हो रहा है', उसे देखते रहना है !
प्रश्नकर्ता : तो फिर 'शुद्धात्मा' उतना 'व्यवस्थित' के बंधन में आया या नहीं?
६५
दादाश्री : नहीं, 'शुद्धात्मा' बंधन में नहीं है । 'शुद्धात्मा' होने के बाद ज्ञाता-दृष्टा रहने की ही ज़रूरत है।
I
मैं 'टॉप' पर जाकर यह बात कर रहा हूँ ! जगत् के लोगों ने जो बात की है, उसमें कुछ लोगों ने तो पहाड़ी की तलहटी में रहकर बात की है, तो कुछ ने पाँच फुट ऊपर चढ़कर बात की है, तो कुछ ने दस फुट ऊपर चढ़कर बात की है और मैं इतनी ऊँचाई तक चढ़ गया हूँ कि, मेरा सिर ऊपर के 'टॉप' को देखता है और नीचे का सारा ही भाग दिखता है! जब कि वीतरागों ने तो 'टॉप' पर खड़े रहकर बात की है! 'टॉप' पर संपूर्ण सत्य है ! यह मैं जो कहता हूँ, उसमें थोड़ी कुछ खामी आ सकती है। क्योंकि 'टॉप' पर का सबकुछ नहीं देख सकता ! 'टॉप' की तो बात ही अलग है न!
प्रश्नकर्ता: महावीर भगवान ऐसा कहते हैं कि कर्म क्षय और किसी भी व्यक्ति के द्वारा नहीं हो सकता, यानी उसमें 'ज्ञानी' भी आ जाते हैं ? दादाश्री : नहीं, ज्ञानी तो खुद अपने कर्म खपाते हैं और दूसरों के