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आप्तवाणी-६
दादाश्री : नहीं, अब आपकी सभी इच्छाएँ, अस्त होती हुई इच्छाएँ कहलाती हैं। इच्छा तो मुझे भी होती है ! बारह बज गए हों, तो मैं भी ऐसे रसोई की तरफ़ देखने जाता हूँ, तब आप नहीं समझ जाओगे कि दादाजी की कोई इच्छा है! वह भी अस्त होती हुई इच्छा कहलाती है ! पलभर के बाद वे सभी इच्छाएँ अस्त हो जाएँगी। वे उगती हुई इच्छाएँ नहीं कहलातीं! वे सभी निकाली बाबत कहलाती हैं ।
प्रश्नकर्ता : काम करें और बीच में इच्छा आए तो उस हर एक बार कौन सा 'टेस्ट' 'अप्लाइ' करें कि जिससे पता चल जाए कि ये ‘डिस्चार्ज' इच्छाएँ हैं और ये 'चार्ज' इच्छाएँ हैं ?
दादाश्री : आप 'चंदूभाई' बन जाओगे तभी 'चार्ज' होगा। इसमें उलझने की कोई ज़रूरत ही नहीं है । यह तो विज्ञान है! अपना 'अक्रम विज्ञान' कहता है कि, सैद्धांतिक बोलना ताकि फिर से चूंथामण (बारबार सही क्या और गलत क्या पर सोचकर उलझना) नहीं करनी पड़े। फिर से चूंथामण करना पड़े, उसका अर्थ ही क्या?
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लोगों ने मान लिया है कि आत्मा को इच्छा होती है । फिर वापस ऐसा कहते है कि मेरी इच्छा बंद हो गई । इच्छाएँ यदि आत्मा का गुण हो तो फिर किसी की बंद होंगी ही नहीं न ! यह तो विशेष परिणाम है ! इसके बावजूद भी आत्मा वीतराग रहा है! लोगों को उसका पता ही नहीं है । वे तो ऐसा ही कहते हैं कि मेरा आत्मा ही ऐसा बिगड़ गया है, मेरा आत्मा पापी है, रागी-द्वेषी है। अब कुछ लोग आत्मा को शुद्ध ही कहते हैं । वे फिर दूसरी तरह से मार खाते हैं। आत्मा शुद्ध ही है, इसलिए कुछ करना ही नहीं है। फिर मंदिर क्यों जाता है? पुस्तकें क्यों पढ़ता है? अब ये दोनों ही भटक मरे हैं। आत्मा वैसा नहीं है। यह बहुत ही सूक्ष्म बात है । इसीलिए तो सभी शास्त्रों ने कहा है कि, ‘आत्मज्ञान जानो ! आत्मा खुद ही परमात्मा है !'
रिकॉर्ड की गालियों से आपको गुस्सा आता है?
प्रश्नकर्ता : ये मन-वचन-काया पर हैं और पराधीन है, इसलिए 'व्यवस्थित' के अधीन हुआ न?