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[२७] अटकण से लटकण और लटकण से भटकण...
दादाश्री : कभी आपको गलगलिया (वृत्तियों को गुदगुदी होना) हो चुके हैं क्या?
प्रश्नकर्ता : रविवार आए और रेस का टाइम होता है, तब अंदर गलगलिया हो जाते हैं।
दादाश्री : हाँ, क्यों शनिवार को नहीं और रविवार को ही वैसा होता है? द्रव्य-क्षेत्र-काल और भाव, चारों ही इकट्ठे हो जाएँ तभी गलगलिया होता है।
अनंत काल से लटके हए हैं, सब अपनी-अपनी अटकण (जो बंधनरूप हो जाए, आगे नहीं बढ़ने दे) से लटके हैं ! अनादि से क्यों लटक पड़ा है? अभी तक उसका निकाल क्यों नहीं आता? तब क्या कहते हैं कि खुद को अटकण पड़ी होती है, हर एक में कुछ न कुछ अलग-अलग तरह की अटकण होती है, उसके आधार पर लटका हुआ है!
यह अटकण आपको समझ में आई? ये घोड़ागाड़ी जा रही हो, घोड़ा मज़बूत हो, और रास्ते में कोई कब्र हो, और उस कब्र के ऊपर हरा कपड़ा ढंका हुआ हो तो, घोड़ा उसे देखते ही खड़ा रह जाता है। वह किसलिए? क्योंकि कब्र के ऊपर जो हरा कपड़ा देखता है, वह नई तरह का लगा। इसलिए घबरा जाता है, फिर उसे चाहे जितना मारे, तब भी वह नहीं हिलता। फिर भले ही मालिक मारकर, समझा-बुझाकर, आँखों पर हाथ रखकर ले जाए, वह बात अलग है। परंतु दूसरे दिन वापस वहीं पर अटक जाता है, क्योंकि अटकण पड़ गई है, उस समय वह सान-भान-ज्ञान सबकुछ भूल जाता है। उसे अगर मारने जाओ तो वह घोड़ागाड़ी को भी उलट दे!