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आप्तवाणी-६
इसी तरह मनुष्य किसी जगह पर मूर्छित हो गया, किसी चीज़ में मूर्छित हो गया यानी कि अटकण पड़ चुकी होती है। उसकी वह अटकण जाती नहीं, यानी किसी भी जगह पर मूर्छित नहीं हो, ऐसा व्यक्ति भी अटकण की जगह आते ही वहाँ पर वह मूर्छित हो जाता है। ज्ञान, भान सबकुछ खो देता है, और उससे कुछ उल्टा हो जाता है। इसलिए कविराज कहते हैं :
‘अटकणथी लटकण, लटकणथी भटकण,
भटकणनी खटकण पर, छांटो चरण-रजकण।' अब भटकन में से छूटना हो तो छिड़को ‘चरण-रजकण'! चरणरजकण छिड़ककर इसका हल ले आओ अब, ताकि फिर से उस अटकण का भय नहीं रहे।
अटकण, अनादि की! यानी हर एक को अटकण पड़ी हुई है, उसी से ये सब अटके हुए हैं और कौन सी अटकण पड़ी हुई है, अब उसे ढूंढ निकालना चाहिए। कब्रिस्तान के सामने अटकण होती है या कहाँ पर अटकण होती है? उसे ढूँढ निकालना चाहिए। अनंत जन्मों की भटकन है। वह सिर्फ अटकण ही है, और कुछ नहीं! अटकण अर्थात् मूर्छित हो जाना! स्वभान खो देना! सभी जगह पर अटकण नहीं होती, घर से निकला वह कहीं सभी जगह मारपीट नहीं करता, राग-द्वेष नहीं करता, परंतु उसे अटकण में राग-द्वेष है! इस घोड़े का उदाहरण तो आपको समझाने के लिए बता रहा हूँ! खुद की अटकण ढूँढ निकालेगा, तब फिर पता चलेगा कि 'कहाँ पर मूर्छित हो गया हूँ, मूर्छित होने की जगह कहाँ पर है?'
प्रश्नकर्ता : यह अटकण यानी पकड़?
दादाश्री : नहीं, पकड़ नहीं। पकड़ तो आग्रह में आता है। अटकण से तो मूर्छित हो जाता है। ज्ञान, भान सभीकुछ खो देता है। जब कि आग्रह में ज्ञान-भान सबकुछ होता है!