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[२५] आराधना करने जैसा... और जानने जैसा...! प्रश्नकर्ता : अब यह जो 'रियल' देखते हैं, तब 'रियल' के प्रति जो प्रेम उत्पन्न होना चाहिए, वह नहीं होता और 'रिलेटिव' उपचार स्वरूप हो गया है, तो यह क्या कहलाएगा?
दादाश्री : यदि प्रेम होगा तो सामने द्वेष उत्पन्न होगा। प्रेम उत्पन्न करने की ज़रूरत नहीं है। आराधन करने जैसा, रमणता करने जैसा सिर्फ यह 'रियल' ही है! 'शुद्धात्मा' की रमणता अर्थात् निरंतर शुद्धात्मा का ध्यान रहे, वह! अब स्व-रमणता करनी है, और कुछ नहीं करना है।
प्रश्नकर्ता : 'रिलेटिव' को जानना है और 'रियल' को भी जानना है?
दादाश्री : नहीं, 'रियल' का आराधन करना है और 'रिलेटिव' को जानना है। जानने जैसा सिर्फ 'रिलेटिव' ही है। यह 'रियल' तो हमने आपको बता दिया है!
अब यह पूरा जगत् 'ज्ञेय' स्वरूप है और आप 'ज्ञाता' हो। आपको 'ज्ञायक' स्वभाव उत्पन्न हुआ है, फिर अब बाकी क्या रहा? 'ज्ञायक' स्वभाव उत्पन्न होने के बाद 'ज्ञेय' को देखते ही रहना है!
आपको अब शुद्धात्मा के प्रति प्रेम रखने की ज़रूरत नहीं है। क्योंकि आप उस रूप हो ही चुके हो। अब किसके साथ प्रेम करोगे? आपको ज्ञानदर्शन और चारित्र शुरू हो गया है! नहीं तो 'देखने-जानने' पर राग-द्वेष होता! देखे-जाने उस पर राग-द्वेष नहीं हो, वह वीतराग चारित्र कहलाता है।
अब तो आपका चारित्र भी उच्च हो गया है। यह तो आश्चर्य हो गया है! परंतु अब उसे सँभालकर रखो तो अच्छा! कोई चोकलेट देकर