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आप्तवाणी-६
लड़ाई करते हैं, लेकिन भीतर राग-द्वेष नहीं रहते हैं। यह ड्रामा जो चल रहा है उसकी तो तू रिहर्सल करके ही आया है । इसलिए तो 'व्यवस्थित' है, ऐसा हम कहते हैं, नहीं तो कभी का यह सब बदल नहीं देते ?
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इस दुनिया में ड्रामा करने की बजाय लोग, यदि कलेक्टर की जगह मिली हो तो वह घर पर सीधा बैठा रहता है, लेकिन ऑफिस की कुर्सी में तो आड़ा हो जाता है। हम घर पर जाएँ तो, 'आइए, बैठिए' और कुर्सी में हो तो ऊपर देखता भी नहीं ! ' क्या यह कुर्सी तुझे काटती है?' वह तुझे पागलपन लगा देती है? 'मैं हूँ, मैं हूँ' करता है। अरे, किसमें है तू? घर पर तो तुझे पत्नी झिड़कती है !
कुछ तो समझना चाहिए न? सबके साथ पारस्परिक संबंध हैं। जगत् अर्थात् क्या? परस्पर सद्भावना। कलेक्टर हो या फिर नौकर हो, परंतु परस्पर सद्भावना होनी चाहिए और हेल्पिंग नेचर होना चाहिए, ओब्लाइजिंग नेचर होना चाहिए!