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आप्तवाणी-६
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मेरी समकक्षा का आए तब तो मैं उसका शिष्य बन जाऊँ। हमने तो पहले से ही तय किया हुआ है कि हरएक का शिष्य बन जाना है, ताकि उसे अड़चन नहीं पड़े। जो शिष्य बनता है, वही खुद अपना गुरु बनेगा, इसलिए सावधानी से चलना। इसलिए गुरुपना मत कर बैठना।
और उस व्यक्ति के शिष्य बन जाएँ तो हमें क्या फायदा होता है? हम उसके ही गुरु बन चुके होते हैं ! उसे अड़चन आए तब उसे पूछने आना पड़ता है!
प्रश्नकर्ता : वह समझ में नहीं आया, दादा।
दादाश्री : हम शिष्य बने, इसलिए संबंध स्थापित हो गया। इसलिए फिर से वह हमारे पास शिष्य बनकर आएगा। हम उसके शिष्य नहीं बने होते तो वह हमारे पास आता नहीं और लाभ उठाता नहीं।
संसार - पारस्परिक संबंध व्यवहार के संबंध च्युत स्वभाव के हैं और आप अच्युत हो। संसार के संबंध कब टूट जाएँ, उसका क्या भरोसा?
प्रश्नकर्ता : ऐसे ही हैं। ऐसा तो अनुभव में आ चुका है।
दादाश्री : तुझे भी अनुभव में आ गया? तेरी मम्मी भी च्युत स्वभाव की है?
प्रश्नकर्ता : हाँ।
दादाश्री : हर किसी के साथ च्युत होनेवाला संबंध है, परंतु वह तो हमें मन में समझना है, व्यवहार में तो ऐसा बोलना है, 'मम्मी, मुझे आपके बगैर अच्छा नहीं लगता!' ।
मम्मी भी बोलती है, 'बेटे, मुझे तेरे बिना अच्छा नहीं लगता!' और अंदर समझती है कि, ये च्युत स्वभाव के हैं। यह सब ड्रामेटिक है। आप भीतर 'मैं शुद्धात्मा हूँ' ऐसा समझो और इन 'चंदूभाई' के नाम का नाटक करना है। इस ड्रामे में राग-द्वेष नहीं होता। ड्रामे में मार-पिटाई करते हैं,