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आप्तवाणी-६
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होता है, ये तो परिणाम आए हैं। पहले भूलें की थीं, उनके ये परिणाम हैं। वे परिणाम देखते' रहो। और उल्टा-सुल्टा तो यहाँ पर लोगों की भाषा में है। भगवान की भाषा में उल्टा-सुल्टा कुछ है ही नहीं।
प्रश्नकर्ता : उल्टा-सुल्टा यदि भगवान की भाषा में नहीं है तो फिर माथापच्ची करने को रहा ही कहाँ?
दादाश्री : कुछ भी माथापच्ची नहीं करनी है। इसलिए मैं कहता हूँ कि "देखो'। और यदि किसी को दुःख नहीं हो, और दुःख हो जाए तो उसका प्रतिक्रमण करना, ऐसा भगवान ने कहा है।"
प्रश्नकर्ता : उल्टा-सीधा भगवान की भाषा में रहा ही नहीं, तो फिर प्रतिक्रमण करने को रहा ही कहाँ?
दादाश्री : सामनेवाले को दुःख होता है, इसलिए। 'सामनेवाले को दुःख नहीं होना चाहिए', यह भगवान की भाषा है न?
प्रश्नकर्ता : परंतु अपना आशय अच्छा होता है, फिर भी दुःखी होते
दादाश्री : आशय अच्छा हो, चाहे जो हो, परंतु उसे दुःख नहीं होना चाहिए। अर्थात् सामनेवाले को दुःख हुआ, तभी से (कर्म) चिपकेगा। इसलिए सामनेवाले को दु:ख नहीं हो, उस तरह से काम लेना।
प्रश्नकर्ता : लोगों को सच्ची बात पसंद ही नहीं आती, फिर कहने को रहा ही कहाँ?
दादाश्री : नहीं, सच्ची बात पसंद नहीं आए, ऐसा है ही नहीं। ऐसा है न कि सच्ची बात को, सच्ची बात कब माना जाता है? सिर्फ सत्य की तरफ ही नहीं देखना है। उसके दो-तीन पहलू होने चाहिए। वह हितकर होना चाहिए, सामनेवाला खुश हो जाना चाहिए। फिर आपकी बात उल्टी हो या सीधी हो परंतु सामनेवाला खुश हो जाना चाहिए, लेकिन उसमें आपकी खराब नियत नहीं होनी चाहिए और सत्य बोलने से सामनेवाले को यदि दुःख होता हो तो आपको बोलना ही नहीं आता। सत्य तो प्रिय,