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आप्तवाणी-६
दादाश्री : वैसे ही यह सब भी सब्जी की तरह ही अलग-अलग तरह का है। सिर्फ प्रतिक्रमण ही इसका उपाय है।
प्रश्नकर्ता : तो ऐसे समय में हमें अपनी बात छोड़ देनी चाहिए या पकड़कर रखनी चाहिए?
दादाश्री : क्या होता है उसे 'देखना'।
प्रश्नकर्ता : कई बार तो हमारी पकड़ दो-दो, तीन-तीन दिनों तक चलती है। उस समय प्रकृति ‘एडजस्ट' नहीं हो पाती, उसका अफसोस रहा करता है।
दादाश्री : आपकी प्रकृति किसी को बाधक होती हो तो प्रतिक्रमण करवाना। प्रकृति तो तरह-तरह का बहुत सारा दिखाती है।
प्रश्नकर्ता : परंतु ऐसे समय में मान लीजिए कि हम 'एडजस्ट' नहीं हों और सामनेवाले को दुःख होता रहे, तो फिर क्या करें? हम 'एडजस्ट' हो जाएँ?
दादाश्री : हमें तो सिर्फ प्रतिक्रमण ही करना है। 'एडजस्ट' होना भी नहीं है और हुआ भी नहीं जाता। हमें 'एडजस्ट' होना हो तो भी नहीं हो पाते, टिकट चिपकती ही नहीं। तू चिपकाता रहे, फिर भी उखड़ जाती है ! अतः सामनेवाले को आपसे दुःख हो या सुख हो, आपको प्रतिक्रमण कर लेना चाहिए।
किसी को दुःख हो रहा है, उस कारण से हमें 'एडजस्ट' हो जाना है, ऐसा लिखा हुआ नहीं है। ऐसे 'एडजस्ट' हुआ भी नहीं जाता। ऐसा भाव ही, अभिप्राय ही नहीं होना चाहिए कि 'एडजस्ट' होना है।
प्रश्नकर्ता : यह समझ में नहीं आया, फिर से समझाइए!
दादाश्री : 'एडजस्ट' होने का अभिप्राय ही नहीं होना चाहिए। जहाँ 'एडजस्ट' ही नहीं हुआ जा सके ऐसा हो, वहाँ पर 'एडजस्ट' होने के अभिप्राय को क्या करना है? इसके बजाय तो प्रतिक्रमण कर लेना, वह