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आप्तवाणी-६
दादाश्री : आपका विवाद हो जाए, उस समय बात को घुमाफिराकर भी उसे असमाधान न रहे, आपको उस तरह से काम लेना चाहिए। यदि आप समझदार हो तो आप पलट जाओ और समाधान करवाओ। यदि आप नहीं पलटते तो आप समझदार नहीं हो। बाकी सामनेवाला तो पलटेगा नहीं। इसलिए मैं किसी को भी नहीं पलटता। मैं ही उससे कहता हूँ कि, 'भाई, मैं ही पलट जाऊँगा।' हमें सीधा रखना है।
ग्यारह बजे आप मुझे कहो कि, 'आपको भोजन कर लेना पड़ेगा।' मैं कहँ कि 'थोडी देर बाद भोजन करूँ तो नहीं चलेगा?' तब आप कहो कि, 'नहीं, भोजन कर लीजिए, तो काम पूरा हो।' तो मैं तुरंत ही भोजन करने बैठ जाऊँगा। मैं आपके साथ 'एडजस्ट' हो जाऊँगा। अब 'एडजस्ट' नहीं होनेवाले को तो लोग मूर्ख कहेंगे। हर एक चीज़ में 'एडजस्ट' नहीं होंगे, तो सामनेवाला मनुष्य आपके लिए क्या अभिप्राय देगा?
समझ किसे कहते है? फिट हो जाए वही समझ! फिर वह ठीक है या नहीं, वह नहीं देखना है। और नासमझी किसे कहते है कि जो फिट नहीं हो। यही एक बात समझ लेनी है।
प्रश्नकर्ता : चेतनता इन्द्रिय समझ से तो बहुत आगे है न? चेतनता हो तो टकराव हो ही नहीं सकेगा।
दादाश्री : नहीं, टकराव तो होना ही नहीं चाहिए। जहाँ टकराव हो, वहीं पर हमारी नासमझी है। इसमें चेतनता का सवाल ही नहीं है। चेतन तो चेतन ही है। यह तो नासमझी भरी हुई है, इसलिए! नामसझी किस लिए खड़ी होती है? अंदर 'इगोइज़म' का मूल है इसलिए! जब तक उस अहंकार का मूल होता है, तब तक ऊँचा-नीचा होता ही रहता है। परेशान करता है, हैरान कर देता है, चैन नहीं लेने देता। इसलिए तब हमें धीरे से उसका मूल उखाड़ देना पड़ेगा। कोई कुछ बोले तो पहले तो अंदर उस अहंकार का मूल खड़ा होता है, फिर चैन से बैठने नहीं देता। बहुत दबाने का प्रयत्न करने पर भी बैठने नहीं देता।
इसके बजाय तो 'हम कुछ नहीं जानते' ऐसा भाव आया, तो बस,