________________
आप्तवाणी-६
१७३
दादाश्री : नहीं, वह तो ऐसा सुना हुआ हो, तो कभी आ सकती है। ज्ञान सुना हुआ हो तो काम आएगा। मैं अपनी तरह से कैसे 'जगत्जीत' बना हूँ, वह आपको बताता हूँ। अंत में जगत् को जीतना तो पड़ेगा ही न?
दख़ल नहीं, ‘देखते' रहो!
चलती गाड़ी में दख़ल नहीं करनी चाहिए। अपने आप ही वह चलती रहेगी। उसमें कुछ रुकेगा नहीं।
प्रश्नकर्ता : इसने इन्टरफियर(दख़ल) किया ऐसा कहते हैं, वही दख़ल का अर्थ है?
दादाश्री : इन्टरफियर तो होता ही नहीं चाहिए। उसे दख़ल ही कहा जाएगा। दख़ल होती है, तब गड़बड़ हो जाती है। जो चल रहा है उसे चलते रहने देना पड़ेगा। अपनी यह ट्रेन चल रही हो और उसमें कुछ खटक-खटक हो रहा हो तो उस घड़ी हमें जंजीर खींचकर शोर मचाना चाहिए? नहीं, उसे चलते ही रहने देना चाहिए।
प्रश्नकर्ता : यह ज़रा चूँ-यूँ बोल रही हो तो भी नीचे फिर ऑइल डालने जाता है।
दादाश्री : हाँ, जाता है। दख़ल करने की ज़रूरत नहीं है। क्या चल रहा है, उसे देखते' रहना। और हम यदि दख़ल करें, तब हमारी तो क्या दशा होगी? जो होता है उसे चलने देना।
प्रश्नकर्ता : गलत हो तो भी चलने दें?
दादाश्री : आप क्या गलत और सही को चलानेवाले थे? मनुष्यों में चलाने की शक्ति ही नहीं है। यह तो झूठा अहंकार करता है कि मैं गलत चलने ही नहीं दूंगा, उससे बल्कि झगड़े होते हैं, दख़ल होती हैं। किसी से गलत हो रहा हो तो हमें उसे समझाना चाहिए, नहीं तो मौन रहना चाहिए।