________________
१७०
आप्तवाणी-६
दादाश्री : हम तो यहाँ पर स्पष्टता करने के लिए बैठे हैं। 'ठीक है', ऐसा कहलवाने के लिए नहीं।
प्रश्नकर्ता : किसी जगह पर कपट हो रहा हो, घर में या बाहर तो धमकाना पड़ता है न?
दादाश्री : अपने धमकाने से यदि सामनेवाले का कपट मिटे तो धमकाना चाहिए, परंतु कपट हमेशा बना रहे तो डराने का कोई अर्थ नहीं। आपको धमकाना नहीं आता। ऐसा करके आपको जेल में डाल देना चाहिए कि 'इन्हें क्यों धमकाया?'
प्रश्नकर्ता : धमकाएँ नहीं, तो और क्या करें? दादाश्री : वह किस तरह से सुधरे, वह देखना।
प्रश्नकर्ता : अपने साथ कोई कपट करे तो स्वाभाविक रूप से उसके ऊपर गुस्सा तो आएगा न?
दादाश्री : पाँच बार गुस्सा होने से उसका कपट यदि चला जाता हो तो ठीक है, और नहीं जाए तो आपको जेल में डाल देना चाहिए। इस दवाई से उसे ठीक नहीं होता! बल्कि ऐसी दवाई पिलाकर उसे मार डालते हो?
प्रश्नकर्ता : वह मनुष्य उसी तरह चलता है। फिर उसका क्या उपाय
करें?
दादाश्री : यह आपका उपाय ही हानिकारक है। यह उपाय नहीं है। यह तो एक प्रकार का इगोइज़म है। मैं इसे ऐसे सुधारूँ, वैसे सुधारूँ, यह इगोइज़म है। हम क्या कहना चाहते हैं कि 'पहले तू सुधर।' सिर्फ आप ही बिगड़े हुए हो, वह तो सुधरा हुआ ही है! यह तो आप सभी को डराकर परेशान करते हो, वह आपको शोभा नहीं देता।
प्रश्नकर्ता : तो फिर क्या करूँ? दादाश्री : खुद को बदलना है। खुद ऐसा बन जाए कि कभी भी