________________
आप्तवाणी-६
१३५
प्रश्नकर्ता : तो फिर करने जैसा कुछ रहता ही नहीं, ऐसा है?
दादाश्री : करने जैसा भी कुछ नहीं रहता और नहीं करने जैसा भी कुछ नहीं रहता। जगत् जानने लायक है।
प्रश्नकर्ता : जानें किस तरह?
दादाश्री : 'यह क्या हो रहा है' उसे देखते' रहना है और 'जानते' रहना है।
प्रकृति का पृथक्करण प्रश्नकर्ता : प्रकृति का एनालिसिस किस तरह से करें, वह समझाइए।
दादाश्री : सुबह उठे, तभी से अंदर चाय के लिए शोर मचाती है या किस के लिए शोर मचाती है, ऐसा पता नहीं चलता? वह प्रकृति है। फिर और क्या माँगती है? तब कहे कि, 'जरा नाश्ता, चिवड़ा कुछ लाना।' वह भी पता चलता है न? इस तरह पूरे दिन प्रकृति को देखे तो प्रकृति का एनालिसिस हो जाता है। उससे दूर रहकर सबकुछ देखना चाहिए! यह सब अपनी मर्जी से कोई नहीं करता, प्रकृति करवाती है!
प्रश्नकर्ता : यह तो स्थूल हुआ। परंतु अंदर जो चलता है उसे किस तरह देखें?
दादाश्री : वह इच्छा किसे हुई, वह हमें देख लेना है। यह इच्छा मेरी है या प्रकृति की है, वह हमें देख लेना है। क्योंकि भीतर दो ही चीजें
हैं।
प्रश्नकर्ता : अलग रहकर 'देखना' उस तरह की प्रेक्टिस करनी पड़ेगी?
दादाश्री : एक ही दिन करोगे तो यह सब आ ही जाएगा फिर। यह सब सिर्फ एक ही दिन करने की ज़रूरत है। बाकी के और सब दिनों में वही का वही पुनरावर्तन है।