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[२०] अनादि का अध्यास
प्रश्नकर्ता : जब-जब हम अपने व्यवहार में और वर्तन में आते हैं तब, ‘मैं शुद्धात्मा हूँ’ या 'चंदूभाई हूँ' उसका कुछ भी पता नहीं चलता।
दादाश्री : उसे समझ लेने की ज़रूरत है। 'आप' चंदूभाई भी हो और ‘आप' ‘शुद्धात्मा' भी हो ! बाय रिलेटिव व्यू पोइन्ट से आप 'चंदूभाई ' और बाय रियल व्यू पोइन्ट से आप 'शुद्धात्मा' हो! रिलेटिव सारा विनाशी है । विनाशी भाग में आप चंदूभाई हो ! विनाशी व्यवहार सारा चंदूभाई का है और अविनाशी आपका है ! अब 'ज्ञान' के बाद अविनाशी में आपकी जागृति रहती है।
समझने में ज़रा कमी रह जाए तो कभी किसी से ऐसी भूल हो जाती है। सभी से नहीं होती ।
आप सिर्फ चंदूभाई ही नहीं हो। किसी जगह पर आप सर्विस करे, तो आप उसके नौकर हो । तब आपको नौकर के सभी फर्ज़ पूरे करने हैं। कोई कहीं हमेशा के लिए नौकर नहीं है ।
प्रश्नकर्ता : अतिक्रमण इतने अधिक होते हैं कि एक काम पूरा नहीं किया हो, वहाँ दूसरा तैयार रहता है । वहाँ पर प्रतिक्रमण का उपयोग करने लगें, तब दूसरा फोर्स इतना अधिक आता है कि उसे ‘पेन्डिंग' रखना पड़ता है।
दादाश्री : वे तो ढेर सारे आएँगे। उस ढेर सारे का समभाव से निकाल करोगे, तब फिर धीरे-धीरे वह ज़ोर कम होगा। यह सब पुद्गल है, पुद्गल यानी क्या कि पूरण (चार्ज होना, भरना) जो किया है वह अभी