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आप्तवाणी-६
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सन् १९३९ में। तब मेरी उम्र ३०-३१ वर्ष की थी। उस गाँव का बनिया पूरे दिन व्यापार करता था, परंतु रात को जुआ खेलकर आता था और पैसे बिगाड़ता था। रात को बनिया देर से आता था, इसलिए उसकी पत्नी उसे अच्छी तरह मारती थी। गाँव के लोग हमें कहने आए कि, 'चलिए सेठ, वहाँ देखने जैसा है।' मैंने कहा, 'अरे, क्या देखने जैसा है?' तब उन लोगों ने कहा, 'आप चलिए तो सही।' तब हम वहाँ गए। वहाँ दरवाज़ा अंदर से बंद किया हुआ देखा। अंदर उसकी पत्नी ऐसे लकड़ी मार रही होगी, तब बनिया क्या कह रहा था, "ले, लेती जा, ले, लेती जा, 'ले, लेती जा'!" यह तो सही है! यह नया शास्त्र पढ़ा हमने! तब गाँववाले मुझे कहने लगे कि "पत्नी रोज़ उसे इस तरह मारती है और सेठ क्या बोलता है कि 'ले लेती जा'!" यह सेठ भी अक्लवाला है न! यह तो दुनिया है। दुनिया में तरह-तरह के रंग होते हैं! बनिये ने आबरू रखी न? आपको तो ऐसी आबरू रखनी नहीं है। आपकी तो आबरू है ही। आपको तो सिर्फ समभाव से निकाल करना है।
एक वकील ने तो अपने मुवक्किल से कहा कि, 'आप यहाँ से जाते हो या नहीं? नहीं तो आपको कुत्ते से कटवाऊँगा!' इसका नाम वकील, LL.B.! अब मुवक्किल भी ऐसे ही हैं।
बगैर ठौर-ठिकाने की यह दुनिया है। हम इसे 'पोलम्पोल' कहते हैं। गुनहगार छूट जाता है और बेगुनाह पकड़ा जाता है ! इसे पोलम्पोल नहीं कहें तो क्या कहें? इस जगत् के व्यवहार से जगत् पोलम्पोल है और कुदरत के नियम से जगत् बिल्कुल नियम में है। लोगों को इसका हिसाब निकालना नहीं आता। यह दिखता है, वह हिसाब आया? ना, ना। यह कुदरत कहती है कि जो, पहले का हिसाब था, यह वह आया है और अब इसका हिसाब तो बाद में आएगा। इसलिए हमें भूल भोग लेनी है। जो अभी दुःख भोग रहा है, वह उसकी खुद की ही भूल है, और किसी की भूल नहीं है।
प्रश्नकर्ता : ये 'चीकणी फाइलें' हैं, वे भी अपनी ही भूल है न?