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आप्तवाणी-६
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प्रश्नकर्ता : यानी ऐसा हुआ न कि सहजता में से असहजता में जाते हैं। फिर वह असहजता 'टॉप' पर जाती है। उसके बाद फिर मोक्ष की तरफ जाते हैं?
दादाश्री : असहजता में 'टॉप' पर जाते हैं, उसके बाद फिर पूरी जलन देखते हैं, अनुभव करते हैं, तब मोक्ष में जाने का निश्चय करते हैं। बुद्धि, आंतरिक बुद्धि खूब बढ़नी चाहिए। फ़ॉरेन के लोगों की बाह्य बुद्धि होती है, वे सिर्फ भौतिक का ही दिखाती है। नियम कैसा है, जैसे -जैसे आंतरिक बुद्धि बढ़ती है, वैसे-वैसे दूसरे पलड़े में जलन खड़ी होती है!
प्रश्नकर्ता : 'टॉप' पर की असहजता में जाने के बाद फिर सहजता में आने के लिए क्या करता है?
दादाश्री : फिर रास्ता ढूँढ निकालता है कि इसमें सुख नहीं है। इन स्त्रियों में सुख नहीं है, बच्चों में सुख नहीं है। पैसों में भी सुख नहीं है। ऐसे उनकी भावना बदलती है ! ये फ़ॉरेन के लोग तो स्त्री में सुख नहीं, बच्चों में सुख नहीं, ऐसा तो कोई कहेगा ही नहीं न! वह तो, जब उस तरह की जलन खड़ी हो, तब कहता है कि अब यहाँ से भागो कि जहाँ कोई मुक्त होने की जगह है। अपने तीर्थंकर मुक्त हो चुके हैं वहाँ चलो, हमें यह नहीं पुसाएगा।
प्रश्नकर्ता : यानी उस समय उनका भाव बदल जाना चाहिए, ऐसा?
दादाश्री : भाव नहीं बदलेंगे, तो हल ही नहीं आएगा! ये लोग जिनालय में जाते हैं, महाराज के पास जाते हैं, भाव नहीं बदलेंगे तो ऐसे कोई जाएगा ही नहीं न!
आज पब्लिक में असहजता कम हो चुकी है, तो मोह बढ़ा हुआ है। इसलिए उन्हें किसी चीज़ की पड़ी ही नहीं होती।
चंचलता, वही असहजता है। ये फ़ॉरेन के लोग बाग में बैठे हों, तो आधे-आधे घंटे तक हिले-डुले बगैर बैठे रहते हैं! और अपने लोग धर्म की जगह पर भी हिलते-डुलते रहते हैं! क्योंकि आंतरिक चंचलता है।