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आप्तवाणी-६
इसलिए हम एक रविवार के दिन लगाम छोड़ देने का प्रयोग करने को कहते हैं। उससे अपने मन में जो ऐसा होता है कि, 'हमने यह लगाम पकड़ी है, तभी यह चल रहा है', वह निकल जाएगा।
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प्रश्नकर्ता : लगाम पकड़ी ऐसा कहा, यानी वह अहंकार हुआ न?
दादाश्री : हाँ, परंतु वह डिस्चार्ज अहंकार है । अहंकार को हमें जान लेना चाहिए और यह भी जानना चाहिए कि यह किस आधार पर चल रहा है? उसके बावजूद भी अभी तक उसका भाव उल्टा रहता है कि मेरे कारण चल रहा है! इसलिए ऐसा प्रयोग करोगे न, तो वह सब बाहर निकल जाएगा !
यह तो बच्चा हमसे कहे, 'मैं तेरा बाप हूँ।' तो उस घड़ी हमें ऐसा होता है कि ‘यही बोल रहा है।' तब हमें गुस्सा आता है और बेटा कब क्या बोलेगा, वह कहा नहीं जा सकता । अर्थात् वाणी रिकॉर्ड है, वह बोलनेवाले की खुद की शक्ति नहीं है, अपनी भी शक्ति नहीं है । यह तो पराई चीज़ फिंक जाती है, ऐसी जागृति रहनी चाहिए ।
इस प्रकार से आगे बढ़ते-बढ़ते तो किसी 'नगीनभाई' की मैं बात करूँ तो उस घड़ी मुझे ऐसा भीतर ख्याल रहना ही चाहिए कि वह 'शुद्धात्मा' है। कोई पुस्तक पढ़ रहे हों, तब उसमें 'मंगलादेवी ने ऐसा किया और मंगलादेवी ने वैसा किया', तो उस समय मंगलादेवी का आत्मा दिखना चाहिए।
इस प्रकार जितना हो सके उतना करना । ऐसा नहीं कि आज के आज ही पूरा कर लेना है। इसमें 'क्लास' नहीं लाना है, परंतु पॉसिबल करना है। धीरे-धीरे सबके साथ शुद्ध प्रेमस्वरूप होना है।
प्रश्नकर्ता : शुद्ध प्रेमस्वरूप अर्थात् किस तरह रहना चाहिए ?
दादाश्री : कोई व्यक्ति अभी गाली दे गया और फिर आपके पास आया तब भी आपका प्रेम जाए नहीं, उसे शुद्ध प्रेम कहते हैं। फूल चढ़ाए तो भी बढ़े नहीं। बढ़े- घटे वह सब आसक्ति है। जबकि बढ़े नहीं, घटे नहीं, वह शुद्ध प्रेम है।