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आप्तवाणी-६
है, वह पुद्गल की चीज़ है । कोई भी चीज़ आपको दी जाए, तब उसमें आपको सुखबुद्धि उत्पन्न होती है । फिर वही वस्तु अधिक दी जाए, तब उसमें दु:खबुद्धि भी उत्पन्न हो जाती है, ऐसा आप जानते हो या नहीं?
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प्रश्नकर्ता : हाँ, ऊब जाते हैं फिर ।
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दादाश्री : इसलिए वह पुद्गल है, पूरण- गलनवाली चीज़ है। यानी वह वह चीज़ हमेशा के लिए नहीं है । टेम्परेरी एडजस्टमेन्ट है । सुखबुद्धि अर्थात् यह आम अच्छा हो और उसे फिर से माँगें, तो उससे ऐसा नहीं माना जा सकता कि उसमें सुखबुद्धि है । वह तो देह का आकर्षण है।
प्रश्नकर्ता : देह का और जीभ का आकर्षण बहुत रहा करता है।
दादाश्री : वह जो आकर्षण रहा करता है, उसमें सिर्फ जागृति रखनी है । हमने आपको जो वाक्य दिया है न कि 'मन-वचन-काया की तमाम संगी क्रियाओं से मैं बिल्कुल असंग ही हूँ।' वह जागृति रहनी चाहिए, और वास्तव में एक्ज़ेक्टली ऐसा ही है । वह सब पूरण - गलन है । आप यह जागृति रखो तो आपको कर्म का बंधन नहीं रहेगा।
प्रश्नकर्ता : वही नहीं रह सके, तो वह हमारे चारित्र का दोष है ऐसा मानें?
दादाश्री : वैसा 'क्रमिक मार्ग' में होता है ।
प्रश्नकर्ता: परंतु उस चारित्रमोह के कारण ढीलापन रहता है।
दादाश्री : ‘क्रमिक मार्ग' में वह ढीलापन कहलाता है। उसके लिए आपको उपाय करना पड़ेगा। इसमें (अक्रम में) आप ढीलापन नहीं कह सकते। इसमें आपको जागृति ही रखनी है । हमने जो आत्मा दिया है वह जागृति ही है।
प्रश्नकर्ता : जागृति नहीं हो, तब राग होता है न?
दादाश्री : नहीं ऐसा नहीं है। अब आपको राग होता ही नहीं है। यह जो होता है, वह आकर्षण है ।