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[११] मानव स्वभाव में विकार हेय,
आत्म स्वभाव में विकार ज्ञेय! प्रश्नकर्ता : स्वरूप का ज्ञान प्राप्त करने के बाद मन में विकार रहते हैं, उसका क्या कारण है?
दादाश्री : मन के विकार तो ज्ञेय हैं। यानी कि वे देखने की चीज़ है। पहले हम मानवस्वभाव में थे। उसमें यह अच्छा और यह बुरा, ये अच्छे विचार और ये बुरे विचार, ऐसा था। अब आत्मस्वभाव में आ गए इसलिए सभी विचार एक जैसे! विचार मात्र ज्ञेय है और 'हम' ज्ञाता हैं। ज्ञेय-ज्ञाता का संबंध है। फिर कहाँ रही दख़ल, वह कहो?
प्रश्नकर्ता : इस तरह आत्मदृष्टि से देखने के लिए कुछ पुरुषार्थ करना पड़ता है या अपने आप ही दिखता है?
दादाश्री : अपने आप ही दिखता है! हमने जो ज्ञान दिया है उससे रिलेटिव और रियल को देखो, सभी रिलेटिव विनाशी चीजें हैं और रियल सभी अविनाशी हैं। ये सब ज्ञेय जो दिखते हैं, वे सब विनाशी ज्ञेय हैं। स्थूल संयोग, सूक्ष्म संयोग, वे विनाशी संयोग हैं। यह सब यहाँ सत्संग में आकर पूछ लेना चाहिए और स्पष्टीकरण कर लेना चाहिए, तो हरएक बात का लक्ष्य रहेगा और लक्ष्य रहेगा, तब फिर कुछ भी करना नहीं पड़ेगा। स्वरूप का ज्ञान प्राप्त होने के बाद कुछ भी नहीं करना पड़ता। ज्ञान ज्ञान में ही रहता है। आत्मा ज्ञायक स्वभाव में ही रहता है। ज्ञायक अर्थात् जानते ही रहने के स्वभाव में रहना। आत्मा में और कोई स्वभाव ही उत्पन्न नहीं होता।