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[१६] बात को सीधी समझ जाओ न! प्रश्नकर्ता : चारित्र किसे कहते है?
दादाश्री : 'ज्ञाता-दृष्टा' रहा, उतना ही भाग चारित्र कहलाता है। 'चंदूभाई' को आप देखते ही रहो, चंदूभाई का मन क्या करता है, मन में क्या-क्या विचार आते हैं, उसकी वाणी क्या बोल रही है! उन सबको 'आप' देखते ही रहो। ये बाहर सब कौन-कौन मिलते हैं! वे स्थूल संयोग। फिर मन में सूक्ष्म संयोग और वाणी के संयोग, उन सबको आप देखते रहो, वह आपके आत्मा का स्वभाव है और वही चारित्र कहलाता है ! उसमें देखना-जानना और परमानंद में रहना होता है और दुनिया का भ्राँति का स्वभाव क्या है कि देखना-जानना और दु:खानंद में रहना! दु:ख और आनंद, दुःख और आनंद उन दोनों का मिक्सचर!
प्रश्नकर्ता : राग-द्वेष किस तरह से जाएँगे?
दादाश्री : 'देहाध्यास' है, तब तक राग-द्वेष हैं, 'देहाध्यास' मिटा कि राग-द्वेष गए!
'देहाध्यास' अर्थात् 'यह देह मैं हूँ, यह वाणी मैं बोलता हूँ, यह मन मेरा है,' वह देहाध्यास। आपका यह सब चला गया, यानी देहाध्यास गया और 'मैं शुद्धात्मा हूँ' वह भान रहा तो फिर वीतराग कहलाएगा। फिर भी जो राग-द्वेष दिखते हैं, वे तो होते ही रहेंगे, उसे भगवान ने चारित्रमोह कहा है। मूल मोह, दृष्टिमोह खत्म हो गया। जो उल्टा ही चल रहा था, वह अब सीधा चलने लगा। दृष्टि सीधी हो गई। परंतु पहले के जो परिणाम हैं, वह मोह, परिणामी मोह तो अभी आएगा। उसे वर्तन मोह कहते हैं। लोग