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आप्तवाणी-६
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हो कि, 'ऐसा ही करना चाहिए।' तो फिर से नया कर्म मज़बूत हो जाता है, निकाचित हो जाता है। उसे फिर भोगना ही पड़ेगा। पूरा साइन्स ही समझने जैसा है। वीतरागों का विज्ञान बहुत गुह्य है।
परिणाम में समता अपने 'अक्रम' का सिद्धांत ऐसा है कि पैसे गिर रहे हों, तो पहले गिरने बंद करो और फिर जो पहले गिर चुके हैं, वे बीन लेना! जगत् तो बीनता ही रहता है। अरे जो गिर रहे हैं पहले उन्हें तो बंद कर, नहीं तो निकाल ही नहीं होगा!
आत्मा के अलावा बाकी का सब क्या है? व्यवहार है। वह व्यवहार पराश्रित है। आपके हाथ में इतना सा भी नहीं है। लोग पराश्रित को स्वाश्रित मानते हैं, एक ने माना, दूसरे ने माना इसलिए खुद ने भी मान लिया। फिर इससे संबंधित कोई विचार ही नहीं आता। एक बार रोग घुस गया, तो फिर निकले किस तरह? फिर तो यह संसार रोग बढ़कर 'क्रोनिक' हो गया। जब रोग 'क्रोनिक' नहीं हुआ था, तब नहीं निकल पाया। वह अब 'क्रोनिक' होने के बाद किस तरह निकलेगा? यह विज्ञान मिलेगा तब छूटेगा।
आपका जितना भी व्यवहार है, यदि वह सब पूरा कर दिया, तब फिर आपको व्यवहार से संबंधित बहुत मुश्किल नहीं आएगी। भीतर जैसी भावना हो वह सब पहले से तैयार होता है! 'विहार लेक' पर घूमने गए थे, वहाँ मुझे नया ही विचार आया कि ये सौ लोग-पचास स्त्रियाँ और पचास पुरुष सभी मिलकर माताजी का गरबा करें तो कितना अच्छा ! तो इस विचार के साथ जैसे ही घूमकर ऐसे देखने गया, तो वहाँ तो सब ऐसे खड़े हो चुके थे और गरबा करने लगे! अब इसके लिए मैंने किसी से कहा नहीं था, फिर भी हो गया! यानी ऐसा होता है! आपका सोचा हुआ बेकार नहीं जाता, बोलना बेकार नहीं जाता। अभी तो लोगों का कैसा है? कुछ फलित ही नहीं होता। वाणी भी फलित नहीं होती, विचार भी नहीं फलते और वर्तन भी नहीं फलता। तीन बार उगाही के लिए धक्के खाए, फिर भी देनदार नहीं मिलता! लेकिन अगर कभी मिल जाए, तो वह गुस्सा करता रहता है!