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आप्तवाणी-६
वह तो सचमुच में मोह है, इसलिए एक दिन में ही पूरे त्याग का फल चला जाता है और स्वरूपज्ञानी 'महात्माओं को' भले ही कितना भी मोह हो, फिर भी उनका कुछ भी नहीं बिगड़ता! इस बात को समझना ही है। यह चारित्रमोह बहुत-बहुत सूक्ष्म चीज़ है।
शरीर के पोषण के लिए ही खुराक लेना। उसमें लोग ऐसा नहीं कहते कि इस भाई ने मोह किया है, लेकिन उसमें तरह-तरह की चटनियाँ, अचार वगैरह सब ले, आम का रस ले, उसे जगत् ऐसा कहता है कि 'आपमें मोह है।' अरे! मुझे भी कहते हैं न! मैं आम, अचार, चटनी खाता हूँ, तब मुझे भी कहते हैं। लेकिन वह वर्तन मोह है, उसका हम निकाल करते हैं। निकाल किया इसलिए फिर से उत्पन्न नहीं होगा। जो पहले के 'डिस्चार्ज' के रूप में था, वह जा रहा है।
प्रश्नकर्ता : लोग उसे क़बूल नहीं करेंगे।
दादाश्री : लोग उसे समझते भी नहीं, वे तो इसे मोह की तरह ही देखते हैं। महावीर भगवान उस मोह को ही देखते थे। मोह तो, कपड़े पहनना भी मोह है और नंगे फिरना भी मोह है। दोनों ही मोह हैं। लेकिन 'डिस्चार्ज' मोह है। पहले 'मैं चंदूभाई हूँ' मानकर उल्टा ही चलता रहता था, वह अब सीधा हुआ। उसकी पूरी दृष्टि सुधर गई। इसलिए अंदर नए मोह का जथ्था उत्पन्न नहीं होता। परंतु पुराना मोह है, उसके परिणाम आते हैं, उन्हें भुगते बगैर तो चारा ही नहीं है।
प्रश्नकर्ता : यानी कि दृष्टिमोह से चारित्रमोह उत्पन्न हुआ, ऐसा?
दादाश्री : दृष्टिमोह और चारित्रमोह, ये दोनों मोह एक हो जाएँ तब उसे 'अज्ञानमोह' कहा जाता है। पूरा ही जगत् उस मोह में ही फँसा है न? इनमें से एक सो जाए तो दूसरे का हल आ जाएगा, ऐसा कहते है। यह दृष्टिमोह जाए तो बस पूरा हो गया। फिर चारित्रमोह की क़ीमत चार आने भी नहीं है।
प्रश्नकर्ता : परंतु क्रमिक मार्ग में उस चारित्रमोह को कोई भी प्रतिज्ञा लेकर, अहंकार करके निकाल देते है न?