________________
आप्तवाणी-६
१०१
से समझना बहुत मुश्किल है। इसके बदले तो इतना पकड़ा हो न कि, 'घर्षण में कभी भी नहीं आना है।' तब फिर क्या होगा? कि शक्तियाँ सलामत रहेंगी, और दिनोंदिन शक्तियाँ बढ़ती ही जाएँगी। फिर घर्षण से होनेवाला नुकसान नहीं होगा!
कभी घर्षण हो जाए तो घर्षण के बाद हम प्रतिक्रमण करें तो वह मिट जाएँगे। यानी यह समझना चाहिए कि यहाँ पर घर्षण हो जाता है, तो वहाँ प्रतिक्रमण करना चाहिए, नहीं तो बहुत जोखिमदारी है। इस ज्ञान से मोक्ष में तो जाओगे, परंतु घर्षण से मोक्ष में जाने में अड़चन बहुत आएगी और देर लगेगी!
इस दीवार के लिए उल्टे विचार आएँ तो हर्ज नहीं है, क्योंकि एकपक्षीय नुकसान है। जब कि जीवित व्यक्तियों के लिए एक उल्टा विचार आया कि जोखिम है। दोनों पक्षों को नुकसान होता है। परंतु उसके बाद यदि हम प्रतिक्रमण करें तो सब दोष चले जाएंगे। इसलिए जहाँ-जहाँ घर्षण होता है, वहाँ पर प्रतिक्रमण करो तो घर्षण खत्म हो जाएगा।
प्रश्नकर्ता : घर्षण कौन करवाता है? जड़ या चेतन?
दादाश्री : पिछले घर्षण ही घर्षण करवाते हैं ! जड़ या चेतन का इसमें प्रश्न ही नहीं है। आत्मा इसमें हाथ डालता ही नहीं। यह सब घर्षण पुद्गल ही करवाता है, परंतु जो पिछले घर्षण हैं वे फिर से घर्षण करवाते हैं। जिनके पिछले घर्षण खत्म हो चुके हैं, उन्हें फिर से घर्षण नहीं होता। नहीं तो घर्षण और उसके ऊपर से घर्षण, उसके ऊपर से घर्षण इस तरह से बढ़ता ही रहता है।
पुद्गल अर्थात् क्या कि वह पूरा जड़ नहीं है। वह मिश्रचेतन है। यह विभाविक पुद्गल कहलाता है। विभाविक अर्थात् विशेषभाव से परिणामित हुआ पुद्गल, वही सब करवाता है! जो शुद्ध पुद्गल है, वह पुद्गल ऐसा-वैसा नहीं करवाता। यह पुद्गल तो मिश्रचेतनवाला बन चुका है। आत्मा का विशेष भाव और इसका विशेष भाव, दोनों मिलकर तीसरा रूप बना - प्रकृति स्वरूप हुआ। वही सारा घर्षण करवाता है!