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आप्तवाणी- -६
बनाता है और फिर खुद ही उसमें फँसता है ! फिर बाहर निकलने के लिए कोकून की माया का छेदन करना पड़ता है। अब उसके कितने लेयर्स हैं? ये सब......
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दादाश्री : लेयर्स-वेयर्स कुछ भी नहीं, सिर्फ घबराहट ही है ! यह मैंने आपको ज्ञान दिया न ! इसलिए अब आप शुद्धात्मा हो गए। इसलिए अब ये मन-वचन-काया और 'चंदूभाई' के नामकी जो-जो माया है, वह सब ‘व्यवस्थित' के ताबे में है । भीतर 'व्यवस्थित' प्रेरणा देगा । इसलिए आपको तो ‘मैं शुद्धात्मा हूँ' उसी में आप रहो, और इन 'चंदूभाई' का क्या हो रहा है, ‘चंदूभाई' क्या कर रहे हैं, वह आप देखते रहो। बस इतना हो गया तो 'आप' पूर्ण हुए। दोनों अपने-अपने काम करते रहेंगे। 'चंदूभाई' 'चंदूभाई' का काम करेंगे। उसमें अब दखल मत करो, यानी आप कोकून के बाहर निकल गए। एक ही दिन 'आप' दख़ल नहीं करो, तो आपको समझ में आ जाएगा कि 'ओहोहो ! मैं कोकून के बाहर निकल गया । '
एक ही दिन रविवार को आप यह प्रयोग करके तो देखो। आपने जो पाँच (इन्द्रियों के) घोड़ों की लगाम पकड़ी है, उसे छोड़कर मुझे पकड़ने दो न! फिर आप आराम से रथ में बैठो और कहना कि, 'दादा, आपको जैसे चलाना हो वैसे चलाइए, हम तो बस आराम से बैठे हैं ! ' फिर देखो, आपका रथ गड्ढे में नहीं गिरेगा। यह तो आपको चलाना नहीं आता और आप उसे चलाने जाते हो। इसलिए जब 'स्लोप' (ढलान ) आए तब लगाम ढीली रख देते हो और चढ़ाई पर चढ़ना हो तो खींचते रहते हो ! तो यह सब विरोधाभासी है। वर्ना मैंने जो आत्मा दिया है न, तो उस कोकून के बाहर आप निकल ही गए हो !
लेकिन अब आपको उपयोग सेट करना पड़ेगा। अर्थात् आत्मा आपको दिया है, परंतु आत्मा का उपयोग ऐसी वस्तु है कि स्लिप होने का उपयोग तो सहज ही रहता है उसे ! यानी यह उपयोग सेट करना है । उसके लिए खुद को जागृति रखनी पड़ेगी, पुरुषार्थ करना पड़ेगा। क्योंकि खुद पुरुष बन गया है !