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आप्तवाणी-६
प्रश्नकर्ता : यह देह है, वह कर्म का परिणाम ही है न? दादाश्री : हाँ, वह कर्म का ही परिणाम है न। प्रश्नकर्ता : कर्म की संपूर्ण निर्जरा होनी चाहिए न?
दादाश्री : कर्म की संपूर्ण निर्जरा हो जाए, तब वह जाता है। शुद्ध चित्त हो जाए तब, कर्म की निर्जरा हो गई, ऐसा कहा जाएगा।
प्रश्नकर्ता : अव्यवहार राशि में ज्ञातापन और संयोग होते हैं क्या?
दादाश्री : उसमें तो बोरे में डाला हुआ हो, वैसा रहता है! वहाँ तो अपार दु:ख होता है।
प्रश्नकर्ता : उसमें अस्तित्व का भान होता है क्या? दादाश्री : अस्तित्व का भान है, इसलिए दुःख अनुभव करता है। प्रश्नकर्ता : नर्कगति में क्या होता है?
दादाश्री : नर्कगति में भी पाँच इन्द्रियों के दु:ख होते हैं। यदि सातवीं नर्क के दुःख सुने तो मनुष्य मर जाए! वहाँ तो भयंकर दु:ख होते हैं! अव्यवहार राशि के जीवों को इतने भयंकर दुःख नहीं होते। उन्हें घुटन रहती है।
बुद्धि का श्रृंगार करें ज्ञानी अपने लोग बुद्धि को 'ज्ञान' कहते हैं, परंतु बुद्धि इनडायरेक्ट प्रकाश है, जब कि 'ज्ञान' आत्मा का डायरेक्ट प्रकाश है।
प्रश्नकर्ता : बुद्धि कहाँ पर पूरी होती है और प्रज्ञा कहाँ से शुरू होती है?
दादाश्री : बुद्धि पूरी होने से पहले प्रज्ञा की शुरूआत हो जाती है। 'ज्ञानीपुरुष' मिल जाएँ और वे आत्मा प्राप्त करवाएँ, तब प्रज्ञा की शुरूआत हो जाती है। वह प्रज्ञा ही मोक्ष में ले जाती है। प्रज्ञा निरंतर भीतर चेतावनी देती रहती है और बुद्धि भीतर दख़ल करती रहती है।