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आप्तवाणी-६
स्वरूपज्ञान होने के बाद 'आप' उग्र हो जाओ, तो वे पिछले कषाय हैं कि जो अब डिस्चार्ज हो रहे हैं । डिस्चार्ज होते हैं, उसे भगवान ने चारित्र मोहनीय कहा है
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‘अपना' ‘पड़ोसी' चेतनभाव सहित है । 'चार्ज' हो चुका है, इसलिए उसके सभी भाव, बुद्धि के सभी भाव, अपमान करे तब मन उछलता है, वे सब पड़ोसी के भाव हैं । मन-बुद्धि-चित्त- अहंकार सभी जब उछलकूद मचाएँ तो ‘आप' चंदूभाई को धीरे से कह दो, ‘उछलना मत भाई, अब शांति रखना।' यानी कि आपको पड़ोसी की तरह पड़ोसीधर्म निभाना है। किसी समय बहुत उत्तेजित हो जाए तो आप दर्पण के सामने देखना। तो इस तरह दर्पण में चंदूभाई दिखेंगे न ! फिर चंदूभाई पर ऐसे हाथ फेरना। यहाँ पर आप फेरोगे तब वहाँ पर दर्पण में भी फिरेगा । ऐसा दिखेगा न? फिर आपको चंदूभाई से कहना है कि, " शांति रखो । 'हम' बैठे हैं। अब आपको क्या भय है?" इस तरह अभ्यास करो । दर्पण के सामने बैठकर आप अलग और चंदूभाई अलग। दोनों अलग ही हैं। सामिप्यभाव के कारण एकता हुई है। दूसरा कुछ है नहीं। शुरूआत से अलग ही हैं। पूरी ‘रोंग बिलीफ़' ही बैठ चुकी है । 'ज्ञानीपुरुष' 'राइट बिलीफ़' दे दें, तो हल आ जाता है। दृष्टिफेर ही है । मात्र दृष्टि की भूल है ।