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आप्तवाणी श्रेणी -६
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प्रतिष्ठा का पुतला 'मैं चंदूभाई हूँ', 'यह मैंने किया', 'वह मैंने किया' ऐसी प्रतिष्ठा की कि तुरंत ही फिर से नई मूर्ति खड़ी हो जाती है और वह मूर्ति फिर फल देती है। जिस प्रकार हम पत्थर की मूर्ति में प्रतिष्ठा करें और वह फल देने लग जाती है, उसी प्रकार हम यह प्रतिष्ठा खड़ी करते हैं। जिस रूप से प्रतिष्ठा करते हैं, उसी रूप का 'प्रतिष्ठित आत्मा' बनता है। यह पुराना 'प्रतिष्ठित आत्मा' नई प्रतिष्ठा खड़ी करता है। आज जो 'चंदूभाई' है, वह पूरा ही पुराना 'प्रतिष्ठित आत्मा' है, वह फिर वापस प्रतिष्ठा करता रहता है कि 'मैं चंदूभाई हूँ, मैं इसका मामा हूँ, इसका चाचा हूँ', ऐसी सब प्रतिष्ठा करता है, यानी वापस आगे चला! और 'मैं शुद्धात्मा हूँ' कहा तो प्रतिष्ठा बंद हो गई। इसलिए हम कहते हैं कि शुद्धात्मपद प्राप्त हो जाने के बाद कर्म बंधने बंद हो जाते हैं।
प्रश्नकर्ता : ऐसा स्पष्ट विवरण किसीने नहीं किया है?
दादाश्री : विवरण होगा, तभी हल आएगा, आत्मज्ञान होना चाहिए। आत्मज्ञान नहीं है, वर्ना वह तो आरपार दिखा सकता है। इसलिए हमने 'प्रतिष्ठित आत्मा' (शब्द) दिया, वह कभी भी किसीने दिया ही नहीं!
प्रश्नकर्ता : यानी वह प्रतिष्ठा के अनुसार सारी क्रियाएँ करता है, काम करता रहता है?
दादाश्री : हाँ, वह भी जैसी प्रतिष्ठा की हो, वैसा। जैसे मूर्ति में प्रतिष्ठा