________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 8+ 4 एकत्रिंशत्तम अनुयोगद्वार सूत्र-चतुर्थ मूल 480 यं जण्णं इमे समणे वा, समणी वा, सावओ वा, सावियावा, तचित्ते, तम्मणे, तल्लेसे तब्भवसिए, तदझवसाणे, तदट्ठोवठते, तदप्पियकरणे, तब्भावणा भाविए, अण्णत्थ कत्य इमेणं अकुब्रमाणे उवउत्ते, जिणवयण धम्माणुरागररत्तमणे उभओकालं आवस्सयं करोति, से तं लोगुत्तरियं भावावस्सयं // से तं नो आगमतो भावावस्सयं ॥से तं भावावस्सयं // 25 // तस्सणं इमे एगट्टिया णाणाघोसा णाणावंजणा ग.मधेजा भवंति, तंजहा-(गाहा) आवस्सयं,आवस्सं,करगिजांधुवनिग्गहो विसोहिय॥अज्झयण छक्कवग्गो, नाओ आराहणामग्गो // 1 // समणेणं सावएणय र भाव आवश्यक किसे कहते हैं? अहो शिष्य ! आवश्यक में चित्स्थापनेवाले, आवश्यक से ही मन. अध्यवसारव तीव्र अध्यवसाय रखनेवाले, उस के अर्थ में उपयोग लगानेवाले, उस में भावना करनेवाले उस के योग्य मुखवत्रिका प्रमुख उपकरण रखनेवाले और अन्य किसी वस्त में अपना मन नहीं रखनेवाले शुद्ध उपयागयुत्त जिन प्रणित वचन में व धर्म में प्रेमाणुराग रक्त बने हु ऐसे साधु. साध्वी श्रावक और श्राविका जो प्रातःकाल व संध्याकालयों दोनों काल भाव आवश्यक (प्रतिक्रमण) करे वह लोकोत्तर भाव आवश्यक. यह लोकोत्तर भाव आवश्यक हुवा. यह नो आगम से भाव आवश्यक हुआ यह भाव आवश्यक हुवा // 25 // अब इस आवश्यक के भाट नाम कहते हैं-१ज्ञ परमार्थ से यह आवश्यक एकार्थ रूप है, परंतु उच्चारन से अनेक घोष और अनेक व्यंजन हैं. इस के नाम कहते हैं-१ आवश्यक आवश्यक पर चार निक्षेपे 4.88. 3 For Private and Personal Use Only