________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विहरिऊणं उभओकालं आवस्सयस्स उषटुंति, से तं लोगुत्तरियं दवावस्सयं / / से तं जाणय सरीर भविय सरीर वइरितं दबावब्सयं // से तं नो आगमतो दवावस्सयं॥ से तं दवावस्मयं // 19 // से किं तं भावावस्सयं ? भावावस्सयं दुविहं पण्णत्तं तंजहा. आरमोय,नो आगमोय॥२०॥से किं तं आगमतो भावावस्सयं ? भागमतो भावावस्सयं जाणए उवउत्त,से तं आगमतो भाववस्सयं ॥२१॥से किं तं नो आगमतो भावावस्मयं ? एकत्रिंशचम-अनुयोमदार मूत्र-चतुर्थ मूल / क्षमादि साधु के गुणों से रहित हैं, षटकायाकी अनुकंपा रहित हैं, घोडे जैसे उम्मत है, गज जैसे निरंकुश हैं, घटारे, मठारे, शृंगारित पोष्टवाले, शुभ्र स्वच्छ वस पहिननेवाले. अईतों की आवाका उल्लंघनकर स्वच्छंदपने विचरनेवाले, वे बावश्यक के लिये दोनों काल में सावधान होते हैं. यह लोकोत्तर दिव्य आवश्यक कहा जाता है. यह जानग भरीर भव्य शरीर व्यतिरिक्त द्रव्य आवश्यक दुवा. यह जो आगम से द्रव्य आवश्यक हुवा. यह ट्रन्य आवश्यक का कथन हुवा. // 19 // अहो भगवन् ! भाव आवश्यक किसे कहते हैं ? अहो शिष्य ! माव आवश्यक दो प्रकार से प्रातपादन किया गया है। तद्यथा- आगम मे और 2 नो आगम से महो भगवन् ! आगम से भाव आवश्यक किसे कहते अहो शिष्य! जो भावश्यक के स्वरूप को उपयोग पूर्वक जानता है उसका नाम भाव आवश्यक है // 21 // 488004 आवश्यक पर चार निक्षपे874885 488 For Private and Personal Use Only