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अनेकान्त 65/2, अप्रैल-जून 2012
५. महिलाएँ भोजन से लिप्त हाथ को यहाँ-वहाँ न धोएँ। इसलिए व्रतोद्योतन श्रावकाचार में कहा है कि जो स्त्रियाँ पकवान बनाने के लिए मिश्री पाक को, या शर्करा पाक को या घी, गुड़ से लिप्त हाथ को घर के भीतर जहाँ कहीं भी धोती हैं जहां पर कि घ्राणेन्द्रिय से आकृष्ट होकर मक्षिका आदि जीव उसे स्पर्श करते हैं और उनका मरण हो जाता है। उस पाप के लिए उस स्त्री को नरक के दुःख सहन करने पड़ते हैं। ६. जो महिलाएं मक्खन को बिना गरम किये कच्चा खा लेती हैं। उनको बंधन, तारण, मारण, छेदन, भेदन सहन करना पड़ता है। उन्हें कोल्हू आदि यंत्रों में पेला जाता है।१२
जैन ग्रंथों में रजस्वला युक्त महिलाओं के संयोग से बना भोजन अशुद्ध की कोटि में आता है। महिलाओं में प्रतिमाह ३ से ५ दिन तक उनके योनी स्थान से अशुद्ध रक्त का प्रवाह प्रतिक्षण होता रहता है जिस कारण वे तत्क्षण रक्त रंचित कहलाती हैं। इसी कारण आचार्यों ने उन महिलाओं को उस समय शुभ क्रिया करने का निषेध किया है। वह उस समय मंदिर नहीं जाती, शास्त्रों का स्पर्श नहीं करती, विवाह इत्यादि कार्यों में सहभागी नहीं होती, भोजन सम्बन्धी कार्यों को नहीं करती तथा कामसेवन आदि क्रियाएं भी नहीं करती, उस समय उनको एकांत में रहकर धर्माराधन करना चाहिए। प्राचीन काल से ही ये उक्तियाँ चरितार्थ हो रही है कि-अशुद्ध महिलाओं की छाया यदि सूखते हुए पापड़ों पर पड़ती है तो वे पापड़ लाल हो जाते हैं तथा उनकी आवाज से पापड़ों का स्वाद बिगड़ जाता है। पकवान आदि भोज्य वस्तुओं का स्वाद बिगड़ जाता है। यदि अशुद्ध अवस्था में देवपूजादि शुभकार्य करती हैं तो मंदिर का चमत्कार समाप्त हो जाता है, तथा उस स्त्री को गर्भपात का दोष लगता है। रजस्वला स्त्री के स्पर्श से नेत्ररोगी अंधा हो जाता है, गर्भवती पक्षी यदि रजस्वला महिला के ऊपर से निकल जाये तो उसका गर्भपात हो जाता है। अशुद्ध अवस्था में कामसेवन करने वाली महिला की संतान नहीं होती वह बांझ हो जाती है। इसलिए आचार्यों ने इस समय ब्रह्मचर्य व्रत को धारण करने का निर्देश दिया है।
जैनाचार्यों एवं वैज्ञानिकों के अनुसार प्रत्येक प्राणी का आभामण्डल उत्सर्जित होता है, जो एक-दूसरे को प्रभावित करता है। अशुद्ध अवस्था में महिलाओं का आभामण्डल रोग उत्पन्न करने वाला तथा अमांगलिक होता है। यदि वे इस समय भोजनशाला में प्रवेश कर आहार सामग्री को तैयार करती हैं तो वह भोजन भी रोगोत्पादक, शक्तिहीन, विचारों में विकृति, कामातुरता आदि दोष उत्पन्न करेगा जो सद्गृहस्थ के लिए हानिकारक है। निष्कर्ष -
जीवन को सुखी बनाने के लिए जीवन में आहार और शयन को व्यवस्थित करने की आवश्यकता है। जिसका भोजन का समय और सोने का समय नियत है वह अपने सभी कार्यों को व्यवस्थित रूप से संचालित करता है। इसके लिए आहार की शुद्धि की आवश्यकता अधिक है।