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ईसाई धर्म व इस्लाम धर्म का उद्भव एवं इनकी शिक्षाएँ
- डॉ. त्रिलोक चन्द कोठारी (डी. लिट.)
१. ईसाई धर्म -
प्रथम शताब्दी के पूर्वार्द्ध में फिलीस्तीन देश में ईसामसीह और उनके अनुयायियों द्वारा प्रचारित और विश्वधर्मों में सर्वाधिक प्रसारित ईसाई धर्म आज विश्व की लगभग तीस प्रतिशत जनसंख्या एवं शताधिक देशों में विस्तृत फैला हुआ है। ईसाई धर्म का स्तम्भ पिता-रूप ईश्वर, पुत्र-रूप ईसामसीह एवं पवित्रात्माओं की त्रयी पर खड़ा हुआ है। पुरानी तथा नई बाइबिल इसके समन्वित पवित्रग्रंथ हैं। कालान्तर में इसके अनुयायियों में वैचारिक मतभेदों के फलस्वरूप स्वतंत्र तीन पंथ उत्पन्न हो गए जिनमें तीन रोमन केथोलिक, प्रोटेस्टेन्ट तथा पूर्वीय-परम्परावादी प्रसिद्धि प्राप्त हैं।
बाइबिल में ईसामसीह को अब्राहम से प्रारंभ होकर डेविड तक की वंशपरम्परा में परिगणित किया गया है। जब वे लगभग २६-२७ वर्ष के थे, तब ही उनके चचेरे भाई ने ईसामसीह के ईश्वरीय पुत्र के रूप में आने की घोषणा कर दी थी। ईसा जब अपने १२ प्रमुख शिष्यों तथा अन्य अनुयायियों के साथ जोरुशलम वापिस लौटे, तो लोगों ने उनका मसीहा की भाँति सत्कार किया, किन्तु सत्ताधीस हिब्रू के अधिकारियों ने उन पर ईशनिन्दा का आरोप लगाते हुए उन्हें ‘क्रूस' पर लटका दिया। उनके १२ शिष्यों ने भी साथ छोड़ दिया और क अनुयायी ‘जुडास’ ने तो छल करके तीस सिक्कों की एवज में उन्हें शत्रुओं को ही सौंप दिया। सूली पर लटकाए जाने के तीसरे दिन (रविवार को ) ईसा पुनर्जीवित हो उठे और लोगों तक अपना सन्देश पहुँचाने के बाद स्वर्गारोहण कर गए। पैगम्बर ईसा के सन्देश सरल, हृदयग्राही, एक परमपिता परमेश्वर में परमास्था प्रकट करने वाले और जीवन में निश्च्छल मानवीय व्यवहार के सन्देशवाहक हैं।
(i) आधार ग्रन्थ :
ईसाई धर्मग्रंथ बाइबिल (न्यू टेस्टामेन्ट) २७ विवरणात्मक उपदेशों अथवा प्रमुख सन्देशों का संग्रह है, जो प्रायः प्राचीन यहूदी धर्मग्रंथ (ओल्ड टेस्टामेंट) का संवर्धित और विस्तारित ग्रन्थ है। वस्तुतः ईसाई धर्मग्रंथ की संपूर्णता दोनों बाइबिल के सम्मिलित रूप में जाकर हुई है अतः ‘ओल्ड टेस्टामेन्ट' को पूरक ग्रंथ रूप में नहीं देखा जा सकता। फिर भी चूंकि 'न्यू टेस्टामेन्ट' उद्धृत ईश्वरीय सन्देश ईसामसीह के निर्वाणकाल के पश्चात् के हैं, अतः उनके उपदेशों के रूप इसकी ग्राह्यता अधिक है। तथ्यों के अनुसार स्वयं ईसा ने अपनी शिक्षाओं को लिखित रूप में नहीं दिया, अपितु उनके उपदेशों को मौखिक रूप से ग्रहण करने
के उपरान्त उनके शिष्यों ने इन्हें लिपिबद्ध किया । इस श्रृंखला में सर्वप्रथम ६८ई. में संग्रहीत मार्क के सन्देश थे, जिनमें ईसाइयों को संगठित होकर संघर्ष करने की प्रेरणा दी गई। तदनन्तर