________________
अनेकान्त 65/4, अक्टूबर-दिसम्बर 2012
41
भाव की अपेक्षा से लोक अनन्त है। काल का कोई अन्त नहीं है। अतः काल की अपेक्षा लोक अनन्त है। भाव की अपेक्षा से भी लोक अनन्त है, क्योंकि धर्मास्तिकायादि षड्द्रव्यात्मक लोक की पर्यायों का कभी अन्त आने वाला नहीं है। इन द्रव्यों का कभी भी पूर्णतः नाश नहीं होता। इसलिए लोक जैनदर्शन में अनादि-अनन्त है। जीव और शरीर एक है या भिन्न, इस प्रश्न का समाधान भी जैनदर्शन में उपलब्ध होता है। जीव ज्ञानगुण एवं दर्शनगुण से सम्पन्न होता है, जबकि शरीर औदारिक आदि पुद्गलों से निर्मित होता है। शरीर में चेतना की प्रतीति जीव के कारण होती है। जब तक शरीर के साथ जीव का संयोग रहता है तब तक शरीर में चेतना बनी रहती है। किन्तु शरीर से जीव के पृथक् होते ही शरीर जड़ हो जाता है। इसलिए जीव और शरीर परमार्थतः पृथक् हैं, किन्तु जीवन जीते समय उनका संयोग बना रहता है। भगवतीसूत्र में आत्मा एवं शरीर के भेदाभेद की चर्चा उठायी गई है, जिसका अभिप्राय है कि जब शरीर को आत्मा से पृथक् माना जाता है, तब वह रूपी व अचेतन है तथा जब शरीर को आत्मा से अभिन्न माना जाता है तब शरीर रूपी एवं सचेतन है। पंडित दलसुख मालवणिया इस सम्बन्ध में स्पष्टीकरण देते हुए कहते हैं -जीव और शरीर का भेद इसलिए मानना चाहिए कि शरीर का नाश हो जाने पर भी आत्मा दूसरे जन्म में मौजूद रहती है, या सिद्धावस्था में अशरीरी आत्मा भी होती है। अभेद इसलिए मानना चाहिए कि संसारावस्था में शरीर और आत्मा का क्षीर-नीरवत् या अग्नि-लोहपिंडवत् तादात्म्य होता है इसलिए काया से किसी वस्तु का स्पर्शी होने पर आत्मा में संवेदन होता है और कायिक कर्म का विपाक आत्मा में होता है।८ देह-त्याग के पश्चात् तथागत रहते हैं या नहीं, इस प्रश्न को जीव की नित्यता या अनित्यता के रूप में समझा जा सकता है। भगवतीसूत्र में इस प्रकार का प्रश्न उठाया गया है कि जीव शाश्वत है या अशाश्वत? इसका उत्तर देते हुए भगवान महावीर कहते हैं कि द्रव्य की अपेक्षा से जीव शाश्वत है तथा पर्याय की अपेक्षा से जीव अशाश्वत है। इसका तात्पर्य है कि मुक्त जीव भी द्रव्यार्थिक नय की दृष्टि से शाश्वत होते हैं तथा पर्यायार्थिक नय की दृष्टि से आश्वत होते हैं।
कर्मसिद्धान्त का जितना विस्तृत एवं व्यवस्थित प्रतिपादन जैनदर्शन में प्राप्त होता है उतना बौद्धदर्शन में नहीं मिलता। यह भी कहा जा सकता है कि अन्य सभी भारतीय दर्शनों की अपेक्षा जैनदर्शन में कर्मसिद्धान्त का गूढ़ एवं विस्तृत विवेचन उपलब्ध है। जैनदर्शन में ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, आयुष्य, नाम, गोत्र एवं अन्तराय - इन आठ कर्मों एवं इनकी उत्तर प्रकृतियों का विवेचन हुआ है। षटखण्डागम, प्रज्ञापनासूत्र, भगवतीसूत्र, कसायपाहुड, गोम्मटसार कर्मकाण्ड एवं विभिन्न कर्मग्रन्थों में बन्ध, उदय, उदीरणा, सत्त्ता आदि का विस्तृत विवेचन प्राप्त होता है। बंधनकरण, उदीरणाकरण, अपकर्षण, उत्कीर्ण, उपशमना, संक्रमण, निधत्त्त, निकाचना आदि करणों का विवेचन जैन ग्रन्थों में महत्त्वपूर्ण रीति से प्राप्त होता है। जैन कर्मसिद्धान्त के अनुसार व्यक्ति अपने पूर्वबद्ध कर्मों की स्थिति और अनुभाग में भी परिवर्तन कर सकता है। मनुष्य अपने भाग्य का स्वयं विधाता है। गुणश्रेणी में चढ़ता हुआ साधक अन्तर्मुहूर्त में अपने कर्मों का क्षय कर सकता है। गुणस्थानसिद्धान्त, लेश्यासिद्धान्त आदि जैनदर्शन के विशिष्ट सिद्धान्त हैं जो उसे बौद्धदर्शन से पृथक् प्रतिपादित