Book Title: Anekant 2012 Book 65 Ank 02 to 04
Author(s): Jaikumar Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 240
________________ 48 अनेकान्त 65/4, अक्टूबर-दिसम्बर 2012 हैं। जैनदर्शन में प्रथम सकषाय योग और बाद में अकषाय योग के निरोध की स्वीकृति है । पतञ्जलि भी पहले क्लिष्ट चित्तवृत्ति का निरोध तथा बाद में अक्लिष्ट चित्तवृत्ति के निरोध की बात करते हैं। इस प्रकार जैनदर्शन एवं पातञ्जल योगदर्शन में निरूपित योग का स्वरूप स्थूल दृष्टि से भिन्न है, किन्तु सूक्ष्म रूप से अध्ययन करने पर अर्थ तथा विषय में एकरूपता है। आचार्य हरिभद्र ने निश्चय और व्यवहार दो दृष्टि से योग निरूपति किया है - वे लिखते हैं : निच्छयओ इह जोगो सण्णाणाईण तिण्ह संबंधो। मोक्खेण जोयणाओ णिद्दिट्ठो जोगिनाहेहिं ।। योगशतक - २ योगीश्वरों (अर्हतों) ने सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन और सम्यग्चारित्र इन तीनों के एक साथ अवस्थान को निश्चयदृष्टि से योग कहा है, क्योंकि यह योग आत्मा को मोक्ष के साथ नियोजित करता है। ववहारओ उ एसो विन्नेओ एयकारणाणं पि । जो संबंधो सोविय कारण कज्जोवयाराओ ।। योगशतक-४ कारण में कार्य का उपचार कर सम्यग्ज्ञान आदि कारणों का आत्मा के साथ जो सम्बन्ध है, उसको भी व्यवहारदृष्टि से योग कहा गया है। गुरु की विनय करना, ' धर्मशास्त्रों का विधिपूर्वक श्रवण, ग्रहण आदि करना तथा शास्त्रोक्त विधि निषेधों का यथाशक्ति पालन व्यवहारयोग है । इस व्यवहारयोग के पालन से कालक्रम से सम्यग्ज्ञान आदि तीनों की उत्तरोत्तर विशुद्ध अवस्था अविच्छिन्न रूप से अवश्य प्राप्त होती है। महर्षि पतञ्जलि ने योग के अष्टांग यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि प्ररूपित किये हैं। जैन दार्शनिक आचार्य हरिभद्र ने भी योगदृष्टिसमुच्चय में आठ दृष्टियों का विधान किया है जो इस प्रकार है :- १. मित्रा, २ . तारा, ३ . बला, ४ . दीप्रा, ५. स्थिरा ६. कान्ता, ७. प्रभा और ८. परा । इन आठ दृष्टियों में चार दृष्टियाँ प्रतिपाती और चार दृष्टियां अप्रतिपाती हैं। प्रथम चार दृष्टियों से पतन की सम्भावना बनी रहती है । इसलिए उन्हें प्रतिपाती कहा गया है जबकि अन्तिम चार दृष्टियों में पतन की संभावना नहीं होती। अतः वह अप्रतिपाती कही जाती है। यहाँ तुलनात्मक दृष्टि से विषय इस प्रकार है - १. मित्रादृष्टि और यम - मित्रादृष्टि योग के प्रथम अंग यम के सदृश है । इस अवस्था में अहिंसा आदि पांच महाव्रतों अथवा पांच यमों का पालन होता है । इस दृष्टि में स्थित व्यक्ति शुभकार्यों के सम्पादन में रुचि रखता है और अशुभ कार्य करने वालों के प्रति अद्वेषवृत्ति रखता है। इस अवस्था में आत्मबोध तृण की अग्नि के समान स्थायी नहीं होता है। २. तारादृष्टि और नियम - तारादृष्टि योग के द्वितीय अंग नियम के समान है। इसमें शौच, सन्तोष, तप, स्वाध्याय आदि नियमों का पालन होता है । जिस प्रकार मित्रा दृष्टि में शुभ कार्यों के प्रति अद्वे

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