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अनेकान्त 65/4, अक्टूबर-दिसम्बर 2012 होता है। पातञ्जल योगदर्शन की परिभाषा में यह प्रशान्तवाहिता की अवस्था है। इसमें रागद्वेषात्मक वृत्तियों का पूर्णतया अभाव होता है। इस अवस्था में होने वाला तत्त्वबोध सूर्य की प्रभा के समान दीर्घकालिक और स्पष्ट होता है तथा कर्ममल क्षीण प्रायः हो जाते हैं। ८. परादृष्टि एवं समाधि -
परादृष्टि की तुलना योग के आठवें अंग समाधि से की गई। इस अवस्था में चित्तवृत्तियां पूर्णतया आत्मकेन्द्रित होती हैं। विकल्प, विचार आदि का पूर्णतया अभाव होता है। इसमें आत्मा स्वस्वरूप में ही रमण करती हैं और अन्त में निर्वाण या मोक्ष प्राप्त कर लेती हैं। इस प्रकार यह नैतिक साध्य की उपलब्धि की अवस्था है। आत्मा में पूर्ण समत्व की अवस्था है जो कि समग्र आचारदर्शन का सार है। परादृष्टि में होने वाले तत्त्वबोध की तुलना चन्द्रप्रभा से की जाती है। जिस प्रकार चन्द्रप्रभा शान्त और आह्लादजनक होती है। उसी प्रकार इस अवस्था में होने वाला तत्त्वबोध भी शांत एवं आनन्दमय होता है।
आचार्य हरिभद्र ने कहा है कि ये आठ दृष्टियां ऐसी हैं जिनमें साधक में धर्मसंलग्नता किसी न किसी मात्रा में अवश्य रहती है, किन्तु इसमें प्रवेश प्राप्त करने से पूर्व भी ज्ञान अथवा चेतना की एक अवस्था होती है इसे मिथ्यादृष्टि या ओधदृष्टि कहते हैं। यह
ओधदृष्टि संसार के प्रवाह में पतित अविद्या में निमग्न व्यक्ति की चेतना की अवस्था है, पतञ्जलि के अनुसार यह सभी क्लेशों का मूल है और स्वयं भी महाक्लेश है।
पतञ्जलि ने प्रथम पांच को योग के बहिरंग साधन बताये हैं, अंतिम तीन को अन्तरंग साधन कहा है। अष्टांगयोग विवेकख्याति का साधन है। आचार्य हरिभद्र ने भी प्रथम चार दृष्टियों को प्रतिपात भ्रंशयुक्त कहा है अर्थात् जो साधक उन्हें प्राप्त कर लेता है उनसे भ्रष्ट भी हो सकता है पर भ्रष्ट होता ही हो, ऐसा नहीं है। भ्रष्ट या पतन की संभावना के कारण ये चार दृष्टियां सापाय - आपाय और बाधायुक्त कही जाती है। अन्तिम चार प्रतिपात रहित अर्थात् बाधारहित हैं। अप्रतिपाती दृष्टि प्राप्त होने पर योगी का अपने मोक्ष लक्ष्य की
ओर प्रयाण अनवरत चालू हो जाता है। जैसे यात्रा पर बढ़े हुए पथिक को मार्ग में कुछ स्थानों पर रुकना पड़ता है जो किसी अपेक्षा से उसकी यात्रा का अंशतः विधान है, उसी तरह मोक्षाभिमुख योगी को अवशिष्ट कर्मयोग पूरा कर लेने हेतु बीच में देवजन्य आदि में से गुजरना होता है जो आपेक्षिक रूप में चरण-चारित्र्य लक्ष्य की ओर गतिशीलता या रूकावट है किन्तु यह निश्चित है, उसके इस प्रयाण का समापन - लक्ष्य प्राप्ति में होता है। सम्प्रज्ञात, असम्प्रज्ञात समाधि से गुणस्थान की तुलना -
प्रत्येक दर्शन में आत्मिक विकास के उपायों की विस्तार से चर्चा मिलती है। अनादिकाल से यह जीव अज्ञान से भ्रमित होने के कारण वस्तु के यथार्थ स्वरूप को जानने और समझने में असमर्थ रहता है। जैसे-जैसे व्यक्ति की रूचि तत्त्व साक्षात्कार की ओर प्रवृत्त होने लगती है वैसे-वैसे वह अपनी शक्ति का नियोजन साधना में लगाता है और निरन्तर साधना के बल पर उत्तरोत्तर विकास कर अपने लक्ष्य तक पहुँचता है।
पातञ्जल योगदर्शन के योगोत्कर्ष को सम्प्रज्ञात समाधि के रूप में अभिहित किया है। इसकी शाब्दिक व्युत्पत्ति के अनुसार ‘सम्' का अर्थ सम्यक् 'प्र' का अर्थ प्रकृष्ट और ज्ञात