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जैनधर्म एवं पर्यावरण-संरक्षण
- प्राचार्य (पं.) निहालचंद जैन
आज विश्व में – एक चेतावनी, चिन्तन और चेतना का दौर सा चल रहा है। चेतावनी का विषय है- पर्यावरण, चिन्तन का विषय है- पर्यावरण प्रदूषण और चेतना का विषय है- 'पर्यावरण का संरक्षण'। मनुष्य अपने स्वार्थ एवं आमोद-प्रमोद के लिए अतुल प्राकृतिक सम्पदा को नष्ट करने पर उतारु बना हुआ है। मनुष्य चाहे वह धनाढ्य-समुदाय का हो या सोशलिस्ट समुदाय का, दोनों वर्गों ने प्रकृति का दोहन कर इसके साथ छेड़छाड़ कर, इसका भरपूर Exploitation किया है, कर रहा है और यह धारणा बन गयी है कि सुखी रहने की कुंजी, भौतिक समृद्धि और पदार्थ-विज्ञान का विकास है।
आज की टेक्नालॉजी, जो भोगवादी संस्कृति की प्रणेता है, ने जीवन के नैतिक व सांस्कृतिक मूल्यों एवं आधुनिकीकरण के दृष्टिकोण को प्रभावित किया है, जिसने पर्यावरण एवं पारिस्थितिकी को असंतुलित कर दिया है। आज पर्यावरण- प्रदूषण तथा पारिस्थितिकी-असन्तुलन की समस्या, मानव के अस्तित्व के लिए चुनौती बनी हुई है। मनुष्य- मनुष्य के बीच और मनुष्य-प्रकृति के बीच के संबंधों ने पर्यावरण को काफी हद तक प्रभावित किया है, जिसे मुख्यतः चार वर्गों में विभाजित कर सकते हैं(i) भौतिक-परिवर्तन - इसके अंतर्गत- भूमिक्षरण, वनों का विनाश, महानगरों में बहुमंजिली इमारतों का निर्माण, खनन आदि। (ii) रासायनिक परिवर्तन- इसके अंतर्गत-जल, वायु, ध्वनि, रेडियो धर्मिता आदि का प्रदूषण (iii) जैविक परिवर्तन- जैविक उपजातियों का विलुप्त होना। (iv) सामाजिक पैथोलॉजी - इसके अंतर्गत हिंसा की बढ़ती प्रवृत्ति, मांसाहार, मानसिक तनाव, लालसा, अनावश्यक धन संग्रह, आतंकवाद आदि।
उक्त चार वर्गों को मुख्यतः दो घटकों के अंतर्गत समायोजित किया जा सकता है(i) बाह्य पर्यावरण। (ii) आन्तरिक पर्यावरण।
मनुष्य पर्यावरण का एक महत्त्वपूर्ण घटक है। यदि उसके शरीर में विकार उत्पन्न होते हैं, तो संपूर्ण पर्यावरण कलुषित हो उठता है। स्वच्छ पर्यावरण के लिए मनुष्य का स्वस्थ होना आवश्यक है। हम वही होते हैं, जो पेट में डालते हैं। "We are, what we eat" अर्थात् पर्यावरण का सम्बन्ध हमारे आचार-विचार, खान-पान, आहार-विहार आदि से घनिष्ठ रूप से जुड़ा हुआ है। जहां बाह्य पर्यावरण के घटक- वस्तुएँ या पदार्थ हैं, वहीं आन्तरिक पर्यावरण जीवन और अन्तर्जगत से संबन्धित है जिसमें मन-मस्तिष्क और आत्मा (चैतन्य) की अहम् भूमिका होती है।