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अनेकान्त 65/4, अक्टूबर-दिसम्बर 2012 जैनधर्म का आध्यात्मिक संविधान- पारिस्थितिकी एवं पर्यावरण से बहुत जुड़ा है। अहिंसा- जैनधर्म का मूल सिद्धान्त है। सूक्ष्म जीवों से लेकर विशाल काय प्राणियों तक मेंदया, प्रेम एवं उनकी रक्षा का भाव जैनधर्म की प्रमुख बात है। आचार्य उमास्वामी देव नेमनुष्य- मनुष्य एवं मनुष्य व अन्य प्राणी/ पादपों के बीच अन्तर्सबन्धों पर एक महत्त्वपूर्ण सूत्र दिया- “परस्परोपग्रहो जीवानाम्" "All Life is bound together by mutual support of interdependence". यह पारिस्थितिकी विज्ञान का यथार्थ सत्य है। जैनधर्म की अहिंसा पेड़-पौधों तक को काटने के लिए साफ मना करता है। क्योंकि सर जगदीश चन्द्र वसु-वैज्ञानिक ने पादप जगत में अनेक प्रयोग करके सिद्ध किया कि उनमें भी प्राण होते हैं, उनमें सुख-दुःख की संवेदनाएं होती हैं। यदि वे भय से कांपते हैं तो संगीत से प्रसन्नता का अनुभव करते हैं। उन्होंने Cresograph के द्वारा दिखाया कि पेड़-पौधे विभिन्न परिस्थितियों में अलग-२ Response देते हैं। शाकाहार- पर्यावरण संरक्षण का आधार है -
शाकाहार- अहिंसा की प्रतिष्ठा का व्यावहारिक रूप है जो सात्विक एवं स्वास्थ्यवर्द्धक आहार है। यह गलत धारणा है कि माँसाहार-शाकाहार की तुलना में अधिक शक्तिवर्द्धक है। एक शाकाहारी ०.७२ एकड़ भूमि से जीवन यापन कर सकता है, जबकि एक मांसाहारी के लिए कम से कम १.६३ एकड़ जमीन की जरूरत होती है। केवल अमेरिका में एक कि.ग्रा. गेहूँ उत्पादन के लिए ५० गैलन जल की आवश्कता होती है, जब कि एक कि. मांस के लिए १०,००० गैलन पानी चाहिए। रोगों को रोकने में फाइबर का बड़ा महत्त्व है, जो शाकाहारी खाद्यान्न में ही मिल सकता है। माँसाहार में फाइबर बिल्कुल नहीं होता। अनाज, दाल, फलों व दूध में यह सुलभता से पाया जाता है। बाईबिल में लिखा है- “यदि तुम शाकाहार करोगे तो तुम्हें जीवन-ऊर्जा प्राप्त होगी। किन्तु मांसाहार करते हो, तो वह मृत आहार तुम्हें मृत बना देगा। कत्लखाने-पर्यावरण के दुश्मन -
अहिंसा के अभाव में क्रूरता की शक्ति बढ़ने लगी और व्यक्ति मांसाहारी हो गया। मांसाहार ने कत्लखानों का शुभारंभ किया जो पर्यावरण के लिए सबसे बड़ा अभिशाप है। इक्कीसवीं सदी के प्रारंभ में देश में वैध कत्लखानों की संख्या ३६००० से अधिक है। अलकबीर कत्लखाने द्वारा इस्लामी देशों में, मांस-निर्यात के लिए, विदेशी मुद्रा कमाने के लिए, कत्ल का रास्ता, हमारी भारतीय-संस्कृति और प्रकृति दोनों के खिलाफ है।
प्रायः एक शंका उठायी जाती है कि यदि मांसाहार बंद हो जाए तो अन्न, धान्य, फल सब्जी के भाव आसमान पर चढ़ जायेंगे। पशु-पक्षी इतने बढ़ जायेंगे कि रहने की जगह और खाने को उन्हें खाद्यान्न नहीं मिलेगा। आखिर इसका समाधान क्या है? अर्थशास्त्री मालथस के अनुसार खाने-पीने कीवस्तुओं और जनसंख्या के बीच का संतुलन, प्रकृति स्वयं बनाये रखती है। यदि मनुष्य, आबादी को बेरोकटोक बढ़ने देता है तो प्रकृति महामारियों/ विपदाओं द्वारा उसे संतुलित कर लेती है। अतः मांसाहार-शाकाहार को जीवित रखे है, यह कहना एक धूर्त संयोजन व विवेकहीन कथन है। माँ बच्चे को जन्म देती है तो इसके पूर्व उसके स्तनों में दूध नहीं होता। जन्म पाते ही माँ के स्तनों में प्रकृतितः दूध की व्यवस्था हो जाती है। प्रकृति