Book Title: Anekant 2012 Book 65 Ank 02 to 04
Author(s): Jaikumar Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 259
________________ अनेकान्त 65/4, अक्टूबर-दिसम्बर 2012 67 ___ डॉ. कामता प्रसाद जैन अपने एक निबन्ध 'विदेशी संस्कृतियों में अहिंसा' में लिखते हैं कि 'मध्यकाल में जैन दार्शनिकों का एक संघ बगदाद में जम गया था; जिसके सदस्यों ने वहाँ करुणा और दया, त्याग और वैराग्य की गंगा बहा दी थी। ‘सिहायत नामए नासिर' के लेखक की मान्यता थी कि इस्लाम धर्म के कलन्दर तबके पर जैनधर्म का काफी प्रभाव पड़ा था। वे लोग अपने प्राणों की बाजी लगाकर भी अहिंसा का पालन करते थे, ऐसे अनेक उदाहरण भी मिलते हैं। श्री विशम्बरनाथ पाण्डेय लिखते हैं कि ‘एक बार दो कलन्दर मुनि बगदाद में आकर ठहरे। उनके सामने एक शुतुमुर्ग किसी का हीरों का हार निगल गया। सिवाय कलन्दरों के किसी ने यह बात नहीं देखी। हार की खोज हुई। कोतवालों को कलन्दर मुनियों पर संदेह हुआ। मुनियों ने मूक पक्षी के साथ विश्वासघात करना उचित नहीं समझा। उन्होंने स्वयं कोतवालों की प्रताड़ना सहन कर ली लेकिन शुतुरमुर्ग के प्राणों की रक्षा की। डॉ. कामता प्रसाद लिखते हैं कि 'अलविद्या फिर्के के लोग हजरत अली की औलाद से थे- वे भी मांस नहीं खाते थे और जीव दया के पालते थे। ई. ९वीं-१०वीं शती में अब्बासी खलीफाओं के दरबार में भारतीय पण्डितों और साधुओं को बड़े आदर से निमंत्रित किया जाता था। इनमें जैन बौद्ध साधु भी होते थे। इस सांस्कृतिक संपर्क का सुफल यह हुआ कि ईरान में अध्यात्मवाद जगा और जीव दया की धारा बही।' वे लिखते हैं कि प्राचीनकाल में अफगानिस्तान तो भारत का ही एक अंग था और वहाँ जैन एवं बौद्ध धर्मों का प्रचार होने से अहिंसा का अच्छा प्रचार था। ई. ६वीं, ७वीं शताब्दी में चीन यात्री हुएनसांग को वहाँ अनेक दिगम्बर जैन मुनि मिले थे। अरब का उल्लेख जैन आगमों में मिलता है। भारत से अरब का व्यापार चलता था। जादिस अरब का एक बड़ा व्यापारी था- भारत से उसका व्यापार खूब होता था। भारतीय व्यापारी भी अरब जाते थे। जादिस का मित्र एक भारतीय वणिक था। वह ध्यानी योगी की मूर्ति अपने साथ अरब लाया और उसकी पूजा करता। जादिस भी प्रभावित हो पूजा करने लगा। मौर्यसम्राट सम्प्रति ने जैन श्रमणों, भिक्षुओं के विहार की व्यवस्था अरब और ईरान में की, जिन्होंने वहां अहिंसा का प्रचार किया। बहुत से अरब जैनी हो गये, किन्तु पारस नरेश का आक्रमण होने पर जैन भिक्षु और श्रावक भारत चले आये। ये लोग दक्षिण भारत में बस गये और 'सोलक' अरबी जैन कहलाये।' __ वे आगे लिखते हैं कि- 'सन् ९९८ ई. के लगभग भारत से करीब बीस साधु सन्यासियों का दल पश्चिम एशिया के देशों में प्रचार करने गया। उनके साथ जैन त्यागी भी गए, जो चिकित्सक भी थे। इन्होंने अहिंसा का खासा प्रचार उन देशों में किया। सन् १०२४ के लगभग यह दल पुनः शान्ति का संदेश लेकर विदेश गया और दूर-दूर की जनता को अहिंसक बनाया। जब यह दल स्वदेश लौट रहा थो, तो इसे अरब के तत्त्वज्ञानी कवि अबुल अला अल मआरी से भेंट हुई। जर्मन विद्वान् फ्रान क्रेगर ने अबुल-अला को ‘सर्वश्रेष्ठ सदाचारी शास्त्री और सन्त कहा है।' अबुल-अला गुरू की खोज में घूमते-घामते जब बगदाद पहुंचे, तो बगदाद के जैन दार्शनिकों के साथ उनका समागम हुआ था और उन्होंने जैनशिक्षा ग्रहण थी। इसका परिणाम यह हुआ कि अबुल अला पूरे अहिंसावादी योगी हो गये। वे केवल अन्नाहार करते थे। दूध

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