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अनेकान्त 65/4 अक्टूबर-दिसम्बर 2012 का प्रश्न वहीं उत्पन्न होता है, जहाँ किसी के प्रति रागभाव का प्राधात्य हो और किसी के प्रति द्वेष की दावाग्नि सुलग रही हो; वहीं हिंसा का प्राधान्य रहता है।
सूफी सम्प्रदाय में प्रेम के आधिक्य पर बल दिया गया है। वे परमात्मा को प्रियतम मानकर सांसारिक प्रेम के माध्यम से प्रियतम के सन्निकट पहुंचना चाहते हैं। उनके अनुसार मानवीय प्रेम ही आध्यात्मिक प्रेम का साधन है। प्रेम परमात्मा का सार है। प्रेम ही ईश्वर की अर्चना करने का सर्वश्रेष्ठ और सर्वोत्कृष्ट रूप है।
इस प्रकार सूफी संप्रदाय में, प्रेम के रूप में अहिंसा की उदात्त भावना पनपी है। प्रेम के विराट रूप का जो चित्रण सूफी संप्रदाय में हुआ, वह अद्भुत है।
यदि हम सूक्ष्मदृष्टि से देखें तो पाएँगे कि इस्लामिक विश्वास, वचन और कर्मकाण्ड (Practice), इसके बाहरी रूप हैं, जबकि इसका आंतरिक रूप सूफीमत है; अतः जनसाधारण का नीतिगत विचार भी सामाजिक और व्यावहारिक नियमों के अंतर्गत पाया जाता है, पर इसका आंतरिक रूप सूफी विचारों में ही देखा जाता है।
जहाँ तक सूफी मत का प्रश्न है, उसमें आत्म-विकास (Development of the Soul) का पाठ सिखाया गया है। इसमें बहुत ऊँचे आंतरिक आचार की बातें बताई गयी हैं। इस्लाम के अनुसार सच्चा जेहाद तो अपनी शारीरिक तृष्णाओं अथवा वासनाओं के विरुद्ध करना चाहिए । अध्यात्म की दृष्टि से सूफी अहिंसा के अधिक करीब दिखायी देते हैं। इस्लाम और जैनधर्म -
भारत सदाकाल से अहिंसा, शाकाहार, समन्वय और सदाचार का हिमायती रहा है, उसकी कोशित रही है कि सभी जीव सुख से रहें, 'जिओ और जीने दो' - जैनधर्म का मूलमंत्र है। जैनधर्म ने अपने इस उदारवादी सिद्धान्तों से मुल्क के तथा विदेशी मुल्कों के हर मजहब और तबके को प्रभावित किया है। इलाहाबाद से प्रकाशित होने वाली पत्रिका 'विश्व वाणी' के यशस्वी संपादक पूर्व राज्यपाल तथा इतिहास विशेषज्ञ डॉ. विशम्बरनाथ पाण्डेय ने अपने एक निबन्ध 'अहिंसक परम्परा' में इस बात का जिक्र किया है । वे लिखते हैं कि
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'इस समय जो ऐतिहासिक उल्लेख उपलब्ध है, उनसे यह स्पष्ट है कि ईस्वी की पहली शताब्दी में और उसके बाद के १००० वर्षों तक जैनधर्म मध्य-पूर्व के देशों में किसी न किसी रूप में यहूदी, ईसाई तथा इस्लाम को प्रभावित करता रहा है। प्रसिद्ध जर्मन इतिहास लेखक वान क्रेमर के अनुसार 'मध्य-पूर्व' में प्रचलित 'समानिया' संप्रदाय 'श्रमण' शब्द का अपभ्रंश है। इतिहास लेखक जी. एफ. मूर के अनुसार 'हजरत' ईसा की जन्म शताब्दी से पूर्व इराक, शास और फिलिस्तीन में जैन मुनि और बौद्ध भिक्षु सैकड़ों की संख्या में चारों तरफ फैले हुए थे। पश्चिमी एशिया, मिस्र, यूनान और इथियोपिया के पहाड़ों और जंगलों में उन दिनों अगणित भारतीय साधु रहते थे जो अपने त्याग और अपनी विद्या के लिए मशहूर थे, ये साधु वस्त्रों तक का त्याग किये हुये थे' अर्थात् वे दिगम्बर थे।
‘सियाहत नामए नासिर' का लेखक लिखता है कि इस्लाम धर्म के कलन्दरी तबके पर जैन धर्म का काफी प्रभाव पड़ा। कलन्दरों की जमात परिव्रजकों की जमात थी। कोई कलन्दर दो रात से अधिक एक घर में नहीं रहता था । कलन्दर चार नियमों का पालन करते थे - साधुता, शुद्धता, सत्यता और दरिद्रता । वे अहिंसा पर अखण्ड विश्वास रखते थे।