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अनेकान्त 65/4, अक्टूबर-दिसम्बर 2012 आवश्यकता बताते हुए कहा है- समाधि की भावना के लिए क्लेशों को तनु करने हेतु क्रियायोग है अर्थात् तप से शरीर, प्राण, इन्द्रिय ओर मन की अशुद्धिदूर होने पर वे स्वच्छ होकर क्लेशों को दूर करने और समाधि प्राप्ति में सहायता देते हैं। स्वाध्याय से अंतःकरण शुद्ध होता है और चित्त विक्षेपों के आवरण से शुद्ध होकर समाहित होने की योग्यता प्राप्त कर लेता है। ईश्वरप्राणिधान से समाधि सिद्ध होती है और क्लेशों की निवृत्ति होती है। इस प्रकार कायिक की अपेक्षा मानसिक भावना को श्रेष्ठ बताते हुए टीकाकार वाचस्पति मिश्र ने एक उदाहरण प्रस्तुत किया है कि सद्बोधननिष्ठा तथा भावपूर्वक जो सत्क्रिया की जाती है वह दोषों को सर्वथा नष्ट कर देती है, जिससे वे पुनः नहीं उभर पाते हैं, जैसे भस्म के रूप में बदला हुआ मेढक फिर कभी जीवित नहीं होता।
बाह्य क्रिया अर्थात् शारीरिक क्रिया द्वारा दोषों का सर्वथा क्षय नहीं होता, उपशम मात्र होता है, जिससे वे अनुकूल स्थिति पाकर फिर उभर आते हैं जैसे टुकड़े-टुकड़े बना, मिट्टी में मिला मेंढक शरीर वर्षा होने पर जीवित हो जाता है।
___ आचार्य हरिभद्र ने भी ऐसा ही कहा है- शारीरिक क्रिया अर्थात् देहाश्रित बाह्य तप द्वारा नष्ट किये गये दोष मेंढक के चूर्ण के समान है। यही दोष यदि भावना अर्थात् मनोभाव अन्तर्वृत्ति की पवित्रता द्वारा क्षीण किये गये हों तो मेंढक की राख के समान समझना चाहिए।
____ आध्यात्मिक विकास में साधक अनेक प्रकार की अलौकिक सामर्थ्य भी प्राप्त करता है। जैन योग में इन्हें लब्धि, पातञ्जल योग में इसे विभूति तथा बौद्ध परम्परा में ये अभिज्ञाएं कहलाती हैं। जैनधर्म में भी संयम के परिणामस्वरूप प्राप्त होने वाली अनेक लब्धियाँ हैं जैसे आमोसहि, विप्पोसहि, खेलोषधि, जलोषधि। ये क्रमशः स्पर्श से मलमूत्र के प्रयोग से, श्लोस्मा के स्पर्श से व शरीर के शेष मलों के स्पर्श से रोगों को दूर करने की शक्तियाँ हैं।
___योगदर्शन में धारणा, ध्यान, समाधि- इन तीनों का किसी एक ध्येय में एकत्र होना संयम कहा गया है। संयम द्वारा योगी विकास की अनेक कोटियां प्राप्त करता है। पतञ्जलि के अनुसार स्थूल, स्वरूप, सूक्ष्म, अन्वय तथा अर्थवत्त्व भूतों की इन पांच अवस्थाओं में संयम द्वारा योगी भूतजय प्राप्त करता है।
इस प्रकार जैन एवं योग परम्परा दोनों में ही योग की महत्ता को स्वीकार किया है। साधना के प्रतिपादन करने में प्रयुक्त शब्दों में कहीं असमानता हो सकती है लेकिन भावगत समानतायें दोनों ही दर्शनों में प्राप्त होती हैं। हमें साधना द्वारा स्वस्वरूप की प्राप्ति हेतु तत्पर रहना चाहिए।
- विभागाध्यक्ष, जैन-बौद्ध दर्शन विभाग संस्कृत विद्या धर्मविज्ञान संकाय
काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी-२२१००५ (उ.प्र.)