Book Title: Anekant 2012 Book 65 Ank 02 to 04
Author(s): Jaikumar Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 241
________________ अनेकान्त 65/4, अक्टूबर-दिसम्बर 2012 गुण होता है उसी प्रकार तारा दृष्टि में जिज्ञासा गुण होता है। व्यक्ति में तत्त्वज्ञान के प्रति जिज्ञासा बलवती होती है। ३. बलादृष्टि एवं आसन - इस दृष्टि में स्थित व्यक्ति की तृष्णा शान्त हो जाती है और स्वभाव या मनोवृत्ति में स्थिरता होती है। इस अवस्था की तुलना आसन नामक तृतीय योगांग से की जाती है क्योंकि इसमें शारीरिक, वाचनिक और मानसिक स्थिरता पर जोर दिया जाता है। इसका प्रमुख गुण शुश्रूषा अर्थात् श्रवणेच्छा माना गया है। इसमें प्रारंभ किये गये शुभ कार्य निर्विघ्न पूर्ण होते हैं। इस अवस्था में प्राप्त होने वाला तत्त्वबोध काष्ठ की अग्नि के समान कुछ स्थायी होता है। ४. दीप्रादृष्टि और प्राणायाम - दीप्रादृष्टि योग के चतुर्थ अंग प्राणायाम के समान है। जिस प्रकार प्राणायाम में रेचक, पूरक एवं कुम्भक ये तीनों अवस्थायें होती हैं उसी प्रकार बाह्य भाव नियंत्रण रूप रेचक, आन्तरिक भाव नियंत्रण रूप पूरक एवं मनोभावों की स्थिरता रूप कुम्भक की अवस्था होती है। यह एक प्रकार का आध्यात्मिक प्राणायाम है। इस दृष्टि में स्थित व्यक्ति सदाचरण या चारित्र को अत्यधिक महत्त्व देता है। वह आचरण का मूल्य शरीर की अपेक्षा भी अधिक मानता है। इस अवस्था में होने वाला आत्मबोधक दीपक की ज्योति के समान होता है। यहां नैतिक विकास होते हुए भी आध्यात्मिक दृष्टि का विकास नहीं हो पाता। अतः इस अवस्था में पतन की सम्भावना बनी रहती है। ५. स्थिरादृष्टि एवं प्रत्याहार - ____ पूर्वोक्त चार दृष्टियों में अभिनिवेश या आसक्ति विद्यमान रहती है अतः व्यक्ति को सत्य का यथार्थ बोध नहीं होता। उपर्युक्त अवस्थाओं तक सत्य का मान्यता के रूप में ग्रहण होता है। सत्य का साक्षात्कार नहीं होता लेकिन इस अवस्था में आसक्ति या राग में अनुपस्थित होने से सत्य का यथार्थ रूप में बोध हो जाता है। तुलनात्मक दृष्टि से यह अवस्था प्रत्याहार के समान है। जिस प्रकार प्रत्याहार में विषम-विकार का परित्याग होकर आत्मा विषयोन्मुख न होते हुए भी स्वस्वरूप की ओर उन्मुख होती है उसी प्रकार इस अवस्था में भी विषम विकारों का त्याग होकर आत्मा स्वभावोन्मुख होती है। इस अवस्था में व्यक्ति का आचरण सामान्यतया निर्दोष होता है। इस अवस्था में होने वाले तत्त्वबोध की तुलना रत्न की प्रभा से की जाती है जो निर्दोष तथा स्थायी होता है। ६. कान्तादृष्टि एवं धारणा - कान्तादृष्टि योग के धारणा अंग के समान है जिस प्रकार धारणा में चित्त की स्थिरता होती है उसी प्रकार इस अवस्था में चित्त की स्थिरता होती है। इस अवस्था में सदसत् का विवेक पूर्णतया स्पष्ट होता है। उसमें किंकर्त्तव्य के विषय में कोई अनिश्चयात्मक स्थिति नहीं होती है। आचरण पूर्णतया शुद्ध होता है। इस अवस्था में तत्त्वबोध तारे की प्रभा के समान एक सा स्पष्ट और स्थिर होता है। ७. प्रभादृष्टि एवं ध्यान - __ प्रभादृष्टि की तुलना ध्यान नामक सातवें योगांग से की जा सकती है। धारणा में चित्तवृत्ति की स्थिरता प्रभारूप एवं दीर्घकालिक होती है। इस अवस्था में चित्त पूर्णतया शान्त

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