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जैनदर्शन एवं पातञ्जलयोग दर्शन : एक तुलनात्मक अनुशीलन
- डॉ. अशोक कुमार जैन
आत्मविकास हेतु प्रचलित आध्यात्मिक साधन पद्धतियों में योग महत्त्वपूर्ण है जिसे सभी दर्शनों ने किसी न किसी रूप में स्वीकार किया है। योग से मानव जीवन पूर्ण विकसित होता है। योग शब्द 'युज्' धातु से ‘घज्' प्रत्यय लगाकर बना है। युज् धातु के दो अर्थ हैं जिनमें से एक का अर्थ है- संयोजित करना, जोड़ना और दूसरा अर्थ है मन की स्थिरता, समाधि। महर्षि पजञ्जलि ने चित्तवृत्ति के निरोध को योग कहा है। जैन परम्परा में योग को अनेक रूपों में स्वीकार किया गया है। आचार्य कुन्दकुन्द ने लिखा है -
संवरजोगेहिं जुदो तवेहिं जो चिट्ठदे बहुविहेहिं। कम्माणं णिज्जरणं बहुगाणं कुणदि सो णियदं।।
___-पञ्चास्तिकाय १४४।। संवर और योग से युक्त जीव बहुविध तपों सहित वर्तता है वह नियम से अनेक कर्मों की निर्जरा करता है। उपर्युक्त गाथा की टीका में आचार्य अमृचन्द ने लिखा है - 'निर्विकल्पलक्षणाध्यानशब्दवाच्य शुद्धोपयोगो योगः' अर्थात् निर्विकल्प लक्षणमय ध्यान शब्द से कहने योग्य जो शुद्धोपयोग है सो योग है। आचार्य हरिभद्र के अनुसार -
एएसिं णियणियभूमियाए उचियं जमेत्थऽणुट्ठाणं।
आणामयसंयुत्तं तं सव्वं चेव योगो ति।। योगशतक-२१ इन अपुनर्बन्धक आदि जीवों के अपनी-अपनी भूमिका के लिए उचित तथा आज्ञारूप अमृत से संयुक्त जो जो अनुष्ठान हैं वे सब योग हैं।
तल्लक्खणयोगाओ उ चिन्तवित्तीणिरोहओ चेव। तह कुसत्रपवित्तीए मोक्खेण उ जोयणाओ त्ति।।
-योगशतक-२२ योग के अनेक लक्षण हैं जैसे चित्तवृत्ति का निरोध योग है, कुशल प्रवृत्ति योग है, मोक्ष के साथ योजित करने वाली प्रवृत्ति योग है। ये सब भिन्न-भिन्न भूमिका के साधकों में घटित होते हैं। उपाध्याय यशोविजय के अनुसार -
मोक्षेण योजनाद् योगः, सर्वोप्याचार इष्यते। विशिष्य स्थानवर्णार्थालम्बनैकाग्रयगोचरः।।
ज्ञानसारचयनिका-८४