Book Title: Anekant 2012 Book 65 Ank 02 to 04
Author(s): Jaikumar Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 236
________________ अनेकान्त 65/4, अक्टूबर-दिसम्बर 2012 ___ बौद्ध दर्शन क्षणिकवादी है उसमें सत् या वस्तु उसे कहा गया है जो अर्थक्रियाकारी हो तथा क्षणिक वस्तु ही अर्थक्रिया में समर्थ होती है। उन्होंने नित्य पदार्थ में अर्थक्रियाकारित्व को असंभव बताकर क्षणिक पदार्थ में उसे स्वीकार किया है। जैन दार्शनिक वस्तु को द्रव्यार्थिक नय की दृष्टि से नित्य तथा पयार्यार्थिक नय की दृष्टि से अनित्य स्वीकार करते हैं। उपसंहार __ऐतिहासिक दृष्टि से विचार किया जाए तो जैनधर्म (निर्ग्रन्थधर्म) बौद्ध धर्म की अपेक्षा प्राचीन है, क्योंकि तीर्थकर महावीर के पूर्व भी जैन परम्परा में २३ तीर्थकर हो गए हैं, जिनमें ऋषभदेव, नेमिनाथ, पार्श्वनाथ आदि तीर्थकरों के पुष्ट प्रमाण भी प्राप्त होते हैं। बौद्ध धर्म सौत्रान्तिक, वैभाषिक, माध्यमिक (शून्यवाद) एवं योगाचार (विज्ञानवाद) सम्प्रदायों में विभक्त होकर विकसित हुआ है। जैनधर्म दिगम्बर एवं श्वेताम्बर सम्प्रदायों में विभक्त होकर विकसित हुआ है, किन्तु बौद्ध दर्शन की विभिन्न सम्प्रदायों में तत्त्वमीमांसीय मान्यताओं में पर्याप्त मतभेद दृग्गोचर होता है, ऐसा कोई तत्त्वमीमांसीय भेद जैन दर्शन की सम्प्रदायों में दिखाई नहीं देता है। जैन दर्शन के दोनों सम्प्रदाय वस्तु को द्रव्यपर्यायात्मक स्वीकार करते हैं तथा उसका बाह्य अस्तित्व मानते हैं। जबकि बौद्ध दर्शन में विज्ञानवाद के मत में वस्तु का बाह्य अस्तित्व ही मान्य नहीं है, वह विज्ञान को ही सत् स्वीकार करता है। सौत्रान्तिक एवं वैभाषिक मत में बाह्य वस्तु का अस्तित्व तो स्वीकृत है, किन्तु वे उसे क्षणिक मानते हैं। माध्यमिक मत में वस्तु प्रतीत्यसमुत्पन्न होने से निःस्वभाव है तथा सत्, असत्, सदसत् एवं न सत् न असत्- इन चार कोटियों से विनिर्मुक्त है। जैन दर्शन में वस्तु को सदसदात्मक स्वीकार किया गया है। जैनदर्शन में मान्य वस्तु का लक्षण उत्पादव्ययघ्रौव्ययुक्तं सत्ह्न सभी द्रव्यों या पदार्थों पर समान रूप से लागू होता है। जैन दर्शन में षड़द्रव्यात्मक लोक की जैसी मान्यता है वेसी कोई मान्यता बौद्ध दर्शन में दिखाई नहीं देती। बौद्ध दर्शन में शाश्वतवाद एवं उच्छेदवाद का परिहार किया गया है। इसीलिए बुद्ध आत्मा की शाश्वतता एवं आशाश्वतता आदि प्रश्नों के सम्बन्ध में मौन हैं। आत्मा को स्वीकार करने पर शाश्वतवाद का तथा उसे न मानने पर उच्छेदवाद का आक्षेप आता है, जिसे टालने के लिए बुद्ध ने इस प्रकार के प्रश्नों पर मौन धारण करना उचित समझा। इसके विपरीत भगवान महावीर ने शाश्वतता एवं आशाश्वतता का नय दृष्टि से समन्वय स्थापित किया है जो जैन धर्म की व्यापक अनेकान्त दृष्टि का सूचक है। ज्ञानमीमांसा की दृष्टि से जैन दर्शन पाँच ज्ञानों का प्रतिपादन करते हुए ज्ञान को सविकल्पक निरूपित करता है तथा दर्शन को निर्विकल्पक रूप में स्थापित करते हुए उसे ज्ञान से पृथक् प्रत्यय के रूप में प्रतिष्ठित करता है, जबकि बौद्ध दर्शन ज्ञान के ही निर्विकल्पक एवं सविकल्पक भेद अंगीकार करता है। आचारमीमांसा की दृष्टि से देखें तो दोनों दर्शन सम्यग्दर्शनपूर्वक आचार को महत्त्व देते हैं किन्तु बौद्ध दर्शन आचार के परिपालन में अधिक कठोरता एवं शिथिलता के मध्य का मार्ग अपनाता है, वहाँ जैन दर्शन में ज्ञानपूर्वक आचरण की कठोरता पर बल प्रदान किया गया है। यही कारण है कि जैन साधु-साध्वी आज भी आचार पालन की दृष्टि से अन्य धर्मों के साधु-साध्वियों की अपेक्षा अग्रणी हैं।

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