Book Title: Anekant 2012 Book 65 Ank 02 to 04
Author(s): Jaikumar Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 235
________________ अनेकान्त 65/4, अक्टूबर-दिसम्बर 2012 43 ___अहिंसा का प्रतिपादन यद्यपि जैन एवं बौद्ध दोनों धर्मों में प्राप्त होता है, तथापि जैनधर्म में उसकी विशेष सूक्ष्मता दृष्टिगोचर होती है। जैनदर्शन में पृथ्वीकायिक, अपकायिक, तेजस्कायिक, वायुकायिक, जीवों की जो परिकल्पना है, वह बौद्ध दर्शन में दिखाई नहीं देती है। बौद्धन्याय के ग्रन्थों में तो वनस्पति को भी चेतनारहित स्वीकार किया गया है, जबकि विज्ञान ने भी वनस्पति में प्रयोग द्वारा चेतना सिद्ध कर दी है। जैनदर्शन लोक को वास्तविक प्रतिपादित करता है तथा उसकी समुचित व्याख्या करता है। जैनदर्शन के अनुसार यह लोक पंचास्तिकायात्मक अथवा षड़द्रव्यात्मक है। धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, जीवास्तिकाय एवं पुद्गलास्तिकाय - ये पाँच अस्तिकाय जिसमें हो वह लोक है। इनमें कालद्रव्य को मिलाकर लोक को षडद्रव्यात्मक भी कहा गया है। बौद्धदर्शन में अस्तिकाय की कोई अवधारणा नहीं है, न ही वहाँ धर्म, अधर्म द्रव्यों की परिकल्पना है। आकाश एवं काल को बौद्धदर्शन भी स्वीकार करता है। जीव को बौद्धदर्शन में चित्त, विज्ञान या पुद्गल कहा गया है। जैनदर्शन का पुद्गल वहाँ रूप शब्द से अभिहित है। पुद्गल परमाणु का जो सूक्ष्म विवेचन जैन दर्शन में प्राप्त होता है वह बौद्धदर्शन में उपलब्ध नहीं है। जैनदर्शन में ज्ञान एवं दर्शन को जीव का लक्षण स्वीकार करते हुए इन दोनों को पृथक् प्रत्ययों के रूप में परिभाषित किया गया है जबकि बौद्धदर्शन में ऐसे दो पृथक् प्रत्यय नहीं हैं। बौद्ध दार्शनिक ज्ञान को ही निर्विकल्पक एवं सविकल्पक भेदों में विभक्त करते हैं जबकि जैनदर्शन में दर्शन को निर्विकल्पक एवं ज्ञान को सविकल्पक स्वीकार किया गया है। जैन दार्शनिक दर्शन एवं ज्ञान का क्रम स्वीकार करते हैं। दर्शन के पश्चात् ज्ञान एवं ज्ञान के अनन्तर दर्शन का क्रम चलता रहता है। जैनदर्शन में ज्ञान के पाँच प्रकार प्रतिपादित हैं१.मतिज्ञान (आभिनिबोधिक ज्ञान) २. श्रुतज्ञान ३. अवधिज्ञान ४. मनःपर्याय ज्ञान एवं ५. केवलज्ञान। बौद्धदर्शन में ज्ञान के इस प्रकार के भेद परिलक्षित नहीं होते हैं। अनेकान्तवाद जैनदर्शन का प्रमुख सिद्धान्त है। आचार्य सिद्धसेन ने अनेकान्तवाद की व्यावहारिक जीवन में उपयोगिता अंगीकार करते हुए कहा है कि अनेकान्तवाद के बिना लोक का व्यवहार नहीं चल सकता जेण विणा लोगस्स ववहारो वि सव्वहा न निव्वडइ। तस्स भुवणेक्कगुरुणो, णमोऽणेगंतवायस्स।। अनेकान्तवाद में व्यवहार और निश्चय का समन्वय स्थापित किया जाता है। कुन्दकुन्द के टीकाकार अमृतचन्द्र ने निश्चय नय और व्यवहार नय दोनों की आवश्यकता स्वीकार करते हुए कहा है - एकनाकर्षन्ती श्लथयन्ती वस्तुतत्त्वमितरेण। अन्तेन जयति जैनी नीतिर्मन्थाननेत्रमव गोपी।।२१ बुद्ध जहाँ शाश्वतवाद और उच्छेदवाद से बचने के लिए मध्यम मार्ग को स्वीकार करते हैं एवं आत्मा के स्वरूप के संबंध में उसकी नित्यता या अनित्यता के प्रतिपादन से बचते हैं वहाँ जैन दर्शन में आत्मा को नित्यानित्यात्मक स्वीकार किया गया है।

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