________________
अनेकान्त 65/4, अक्टूबर-दिसम्बर 2012
29
__ और भी कहा है कि “जिनका आत्मा में विश्वास है वे नष्ट नहीं होते, किन्तु अविनाशी जीवन यापन करते हैं।"
जैन अध्यात्म पाप एवं पुण्य दोनों को हेय बताकर उनसे ऊपर शुद्धोपयोग में जाने की प्रेरणा देता है। बाइबिल में इसी प्रकार से कही गई है कि- “नैतिकता जब तक सत्असत् और शुभ-अशुभ से ऊपर नहीं उठती, तब तक मनुष्य को मोक्ष प्राप्त नहीं हो सकता।"
__ जैनदर्शन एवं अध्यात्म का मानना है कि प्रत्येक आत्मा का अन्तिम लक्ष्य मोक्ष की प्राप्ति है, जहाँ प्रत्येक आत्मा परमात्मा के समान पूर्ण शुद्ध-बुद्ध बन जाता है। बाइबिल में इसी भी स्वीकार करते हुए कि- “ईश्वर के राज्य की प्राप्ति परम शुभ है। .... उसी प्रकार पूर्ण बनो जिस प्रकार स्वर्ग में तुम्हारा पिता पूर्ण है।"
अध्यात्म की उक्त बातों की तरह जैनधर्म के आचार-विचार की भी बहुत-सी बातें 'बाइबिल' में उपलब्ध होती हैं। उदाहरणार्थ- बहुत से धर्मात्मा लोग बाह्य शुद्धि पर ही जोर देते हैं, अपना अंतरंग शुद्ध नहीं करते। उनके लिए कहा गया है कि “हे कपट शास्त्रियों ! तुम कटोरे और थाली को ऊपर-ऊपर से तो माँजते हो, परन्तु वे भीतर अन्धेर असंयम से भरे हुए
___अहिंसा और अपरिग्रह भी जैन आचार के प्रमुख सिद्धान्त हैं। बाइबिल में इन दोनों का पुरजोर समर्थन मिलता है। अहिंसा पर जोर देते हुए कहा गया है कि “हमें अधिकार नहीं कि किसी का प्राण लें और अपरिग्रह पर जोर देते हुए कहा गया है कि- परिग्रह इकट्ठा मत करो। "Don't store up your profits" तथा यहाँ तक कहा है कि “एक ऊँट का सुई के छेद में से निकलना सम्भव है किन्तु एक धनी का स्वर्ग में प्रवेश असम्भव है।" इससे सिद्ध होता है कि महात्मा ईसा अपरिग्रह की अवधारणा में बहुत विश्वास करते थे।
पापों के संदर्भ में एक विशेष बात यह है कि जैनधर्म केवल बाहरी पाप क्रिया को ही पाप नहीं कहता बल्कि मन में रागादि विकारों की उत्पत्ति को मूलभूत पाप मानता है और उसे दूर करने की सशक्त प्रेरणा देता है। यही कारण है कि वहाँ सभी पाप दो प्रकार के बताए गए हैं- द्रव्यहिंसा और भावहिंसा, द्रव्य झूठ और भावझूठ, द्रव्यचोरी और भावचोरों, द्रव्यकुशील
और भावकुशील, द्रव्यपरिग्रह और भावपरिग्रह। बाइबिल में भी भावरूप पापों को त्यागने की बात पर जोर दिया गया है यथा- “तुमने यह सुना है कि अवैध संभोग मत करो किन्तु मैं तुम्हें कहता हूँ कि जो कोई भी व्यक्ति किसी भी स्त्री को वासनायुक्त दृष्टि से देखता है उसने मन में अवैध संभोग का कर्म कर लिया।
जैनाचार में दिखावे की बजाए भावों की विशुद्धता पर बल प्रदान किया गया है। बाइबिल का भी यही कहना है- “सावधान रहो, तुम मनुष्यों को दिखाने के लिए धर्म के काम न करो, नहीं तो स्वर्गीय पिता से कुछ भी फल न पाओगे।"
और भी देखिए कितना अच्छा कहा है- “जब तू दान करे तो अपने आगे तुरही न बजवा, जैसा कि कपटी लोग सभाओं और गलियों में करते हैं। यदि तुम ऐसा करोगे तो मैं तुमसे सच कहता हूँ कि तुम अपना फल पा चुके।"
अथवा “जब तू दान करे तो यदि दाहिना हाथ करता है तो तेरा बाँया हाथ ही न जानने पाए।”