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ईसाई धर्म व जैन धर्म का
तुलनात्मक अध्ययन
- प्रो. वीरसागर जैन
सर्वप्रथम तो ईसा मसीह के जीवन और वचनों से हमें यह भलीभाँति समझ में आता है कि वे बहुत ही कोमल, सरल एवं दयालु प्रकृति के महापुरुष थे और कपट, कटुता एवं कठोरता से कोसों दूर रहते थे।
वे संसार से विरक्त और सदैव धर्मचर्चा हेतु उत्सुक रहते थे। वे उस जमाने में भी धर्मलाभ हेतु भारत वर्ष तक आये थे और महीनों तक अनेक जैन-बौद्ध साधुओं की संगति में रहे थे। एक बार तो उन्होंने पालीताना में (जिसे वहाँ 'पेलेस्टाइन' कहा गया है और जो आज गुजरात राज्य में आता है) ४० दिन का उपवास करके जैन साधुओं की संगति की थी और उनसे आध्यात्मिक शिक्षा भी प्राप्त की थी । प्रसिद्ध जैनाचार्य श्री विद्यानन्द मुनि ने उनके विषय में लिखा है कि
“महात्मा ईसा बाल्य-अवस्था से ही दयालु तथा संसार से विरक्त थे। जब वे तेरह वर्ष के हुए तब उनके परिवार वालों ने उनका विवाह करना चाहा किन्तु ईसा ने विवाह नहीं किया और घर से निकल पड़े। तदनन्तर वे ईरानी व्यापारियों के साथ सिन्ध के मार्ग से भारत में चले आये।"
..... हजरत ईसा ने पेलेस्टाइन में आत्मशुद्धि के लिए जिस स्थान पर ४० दिन का उपवास किया था, वह पैलेस्टाइन प्रख्यात विद्वान् जाजक्स के मतानुसार भारत का पालीताना जैन क्षेत्र है। पालीताना में ही ईसा ने जैन साधुओं से धार्मिक शिक्षा ग्रहण की थी।
हजरत ईसा ने अपने प्रचार में तीन बातें लिखीं - १. आत्म श्रद्धा या आत्मविश्वास (Self Reliance) यानी know Thyself तुम अपने आत्मा को समझो। २. विश्व प्रेम Universal Love तथा ३. जीव दया ।
इन तीनों मान्यताओं पर जैनधर्म की छाप है। सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र काही रूपान्तर या प्रकारान्तर महात्मा यीशु का सिद्धान्त है।
इस तरह हजरत ईसा पर जैनधर्म और जैन साधुओं का प्रभाव रहा । "
(विश्वधर्म की रूपरेखा, पृ. ७८-८० )
इसके अतिरिक्त उन्होंने इतिहासवेत्ता श्रीयुत पं. सुन्दरलाल जी की कृति 'हजरत ईसा और ईसाई धर्म' के पृष्ठ १३२ का संदर्भ देते हुए यह भी बतलाया है कि- “भारत में आकर हजरत ईसा बहुत समय तक जैन साधुओं के साथ रहे। जैन साधुओं से उन्होंने आध्यात्मिक शिक्षा तथा आचार-विचार की मूल भावना प्राप्त की ।"