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अनेकान्त 65/2, अप्रैल-जून 2012
की जगह निवृत्ति का समन्वय होने लगा, धर्मसूत्रों में जीवन की चार अवस्थाओं का सिद्धान्त आया है, वह उसी का फलस्वरूप है।
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जी. सी. पाण्डे का मानना है कि स्वयं वेदों में कर्मकाण्ड विरोधी प्रवृत्ति दिखाई देती है। वह तपस्या के प्रभाव के कारण है, जो वेदों से पूर्व से चली आ रही थी। कुछ पंथ, जैसे जैनधर्म और बौद्ध धर्म, इस पूर्व वैदिक विचारधारा की निरन्तरता को प्रकट करते हैं।"
जी. एस. घुर्ये तथा एन. दत्त के मत में बौद्ध धर्म तथा इसके सम-सामयिक मत ब्राह्मणों के विरुद्ध क्षत्रियों द्वारा सामाजिक वर्चस्व हेतु चलाए गए संघर्ष का परिणाम थे। ये मत प्रोटेस्टेंट धर्म के समान व्यापारियों तथा राजाओं की उभरती धनाढ्यता का तपोत्पादन था। इसी प्रकार बहुत से राजाओं का नशापन, क्रूरता, दुश्चरित्रता, विश्वासघात, अधार्मिकता आदि तथा पुरोहितों द्वारा राजाओं को अपनी मनमानी करने में सहयोग देने की तत्परता के कारण जन-साधारण की परिस्थितियाँ अत्यन्त विषम हो गईं। इन धार्मिक आन्दोलनों के एक नहीं, वरन् अनेक कारण रहे। जातिगत व्यवस्था के अत्यधिक जटिल होने के कारण सामाजिक असन्तोष था । परस्पर विरोधी मतों, संप्रदायों के झगड़ों के कारण व्यक्ति में आध्यात्मिक जीवन जीने की चाह पनपने लगी।
यह हम पूर्व में बता चुके हैं कि भगवान् महावीर का युग तर्क और जिज्ञासा का युग था । उस समय अनेक मतवाद अस्तित्त्व में थे अनेक धर्माचार्य, धार्मिक और मतवादी अपने-अपने धर्मो का परिपोषण करते हुए विहरण कर रहे थे। अनेक लोग अपने आपको तत्त्व दृष्टा बताते और अपने सिद्धान्तों को लोगों में फैलाने के लिए विहार करते और उपदेश देते थे। उनका पारस्परिक मिलन और वार्तालाप मुक्त था। खुलकर धर्मसंघ के आचार्यों, प्रमुखों में चर्चाएँ होती थी। कभी-कभी जिज्ञासु स्वयं ऐसे लोगों का नाम सुनकर उनके पास जाता और अपनी शंकाएँ रखता, प्रश्नकर्त्ता के सामने अपने मत सिद्धान्तों और उसके समर्थन में युक्तियों की धारा बहती। इसमें स्वमत को श्रेष्ठ दिखाने का प्रयास चलता रहता था। इस प्रकार वाद-प्रतिवाद होने से कालान्तर में वाद के विभिन्न नियमों का विकास हो गया।
६०० ई.पू. के प्रमुख धर्मनायकों में भगवान् महावीर भी एक प्रमुख धर्मनायक थे। अतः इस स्थिति से उनको भी गुजरना पड़ा। यद्यपि जैनधर्म आचार प्रधान है तथापि देशकाल की परिस्थितियों के अनुरूप उन्होंने भी अपनी धर्मदृष्टि का प्रसार-प्रसार करने के लिए चारित्र बल के अलावा वाग्बल का भी सहारा लिया।
सम्पूर्ण ज्ञान (केवलज्ञान) होने के पश्चात् उन्होंने देशना (उपदेश) देना शुरू किया। ऐसे में अनेक विचारक उनके पास आते और उनसे प्रश्न पूछते, जैनागमों और बौद्ध पिटकों में श्रमण और ब्राह्मण अपने-अपने मत की पुष्टि करने के लिए विरोधियों के साथ वाद करते हुए और युक्तियों के बल पर प्रतिवादियों को हराते हुए देखे जाते हैं। जैन आगमों में श्रमण, श्रावकों और स्वयं भगवान् महावीर के वादों का वर्णन अनेकों जगह आया है।
अस्तु प्रश्न यह है कि आगमों में विभिन्न मतवादों के उल्लेख होने के क्या कारण हैं? जहां तक मैं समझ पाई, उसका एक कारण तो यह हो सकता है कि वे अन्य-अन्य मतवाद,