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अनेकान्त 65/3, जुलाई-सितम्बर
ग्रन्थ-समीक्षा १. वारस अणुवेक्खा - (भाग-१ एवं भाग-२) - श्रीमद् भगवत्-कुन्दकुन्दाचार्यविरचित की सर्वोदया टीका- टीकाकार- श्रीमद्गणाचार्य विरागसागर महाराज, संपादन एवं संस्कृत से हिन्दी भाषा अनुवाद- प्रो. दमोदर शास्त्री, प्रकाशकभारतीय ज्ञानपीठ-१८, इन्स्ट्टीयूशनल एरिया, लोधी रोड, नई दिल्ली-३, प्रथम संस्करण-२०१२, मूल्य प्रत्येक भाग रु. ४५०/- कुल पृष्ठ-९८४+७६ =१०६०
बारस अणुवेक्खा पर अभी तक संस्कृत या अन्य भाषा में कोई टीका उपलब्ध नहीं थी। इस कमी को अनुभव करके गणाचार्य श्री विरागसागर जी महाराज ने एक विस्तृत संस्कृत टीका ‘सर्वोदया' लिखी है, जो गागर में सागर की उक्ति को चरितार्थ करती है। इसमें जैन परम्परा के ३८ महनीय ग्रन्थों का सार समाया हुआ है। प्रकाशक के प्रेरक है- उपाध्याय श्री प्रज्ञसागर जी मुनिराज। यह ग्रन्थ तत्त्वज्ञानियों, मुमुक्षुओं और अध्येताओं के लिए अत्यन्त मननीय व पठनीय है। यह ग्रन्थराज- संसार-शरीर और भोगों के यथार्थ स्वरूप का चित्रण करता हुआ निज स्वरूप से प्रीति कराकर वैराग्य भावना को दृढ़ व पुष्ट करता है।
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२. 'समयसार' - आचार्य कुन्द कुन्द कृत, हिन्दी अनुवाद- डॉ. जयकुमार 'जलज', संपादन- आचार्य कल्याणबोधि, प्रकाशक-हिन्दी ग्रंथ कार्यालय मुम्बई, पृष्ठ सं. १०४, द्वितीय संस्करण-२०१२, मूल्य रु.८०/
डॉ. जयकुमार 'जलज' द्वारा किया गया समयसार का यह अनुवाद हमें समयसार की गाथाओं तक पहुंचाने का एक सीधा सरल रास्ता उपलब्ध कराता है और बिना आतंकित किए सिर्फ वहीं तक हमारे साथ चलता है, जहाँ तक जरूरी है। इसका पहला संस्करण छपते ही बिक गया। अनुवादकर्ता 'जलज' की 'प्रास्ताविक' जो सात पृष्ठों में है, मौलिक एवं पठनीय है। डॉ. जलज लिखते हैं कि आचार्य कुन्दकुन्द भगवान महावीर के सिद्धान्तों का जिस गहन भावात्मक जुड़ाव के साथ प्रतिपादन करते हैं उनकी कविता और मौलिकता उसी में है। वे मनुष्य की चाहे श्रावक हो या श्रमण, हर कमजोरी को जानते हैं और छल, अज्ञान, अहंकार, मिथ्यात्व आदि से सावधान रहने की अलख जगाते हैं।
समीक्षाकार- प्राचार्य पं. निहालचंद जैन